मैं उस वक्त क्लास थर्ड में थी शायद जब मैने चोरी किया था. अपने को अपने परिवेश से मिलाना और उस बेमेल में अपनी समझ को ताक पर रख देना. स्कूल में मेरे दोस्त थोड़े अमीर अमीर से दिखते थे क्योंकि सभी अंग्रेजी में फाय फाय करते थे. उनमें से कइयों के पापा कार से स्कूल छोड़ने आते थे और मैं थी कि मेरे पापा लाल रंग की मोटर साइकिल पर हमें स्कूल पहुंचाते हुए ऑफिस जाते थे कार घर पर रहने के बावजूद भी ऐसी गरीबी मुझे असहनिय लगती थी. एक सुन्दर सी गोरी सी लड़की थी और उसकी मम्मी भी सुन्दर और समार्ट सी दिखती थी वो अपने लंच में हॉट डाग नुमा चीज लाती थी जो मेरे आकर्षण की चीज होती. मैं उसकी तरह दिखना चाहती थी, वही खाना चाहती थी जो वो खाती है वैसे ही लिखना चाहती जैसे वो अपने बड़े बड़े लाल रंग के नटराज पैंसिल से सुन्दर हैंगराइटिंग में करसिव में लिखती थी. शायद वह क्लास में फस्ट भी होती थी इतना तो मुझे अब याद नहीं पर अब भी यादों में उसकी लिखावट, उसके हॉट डाग वैगरह आते है.
तो माजरा यह था कि मुझे स्कूल पैदल जाना पड़ता और कई मेरी नजर में अमीर बच्चे कार नहीं तो रिक्शे से ही स्कूल आया जाया करते थे. पता नहीं मैंने कभी मां से रिक्से रखवाने को कहा था कि नहीं पर मेरी भी इच्छा होती कि मैं रिक्शे से स्कूल जाऊं.
हां तो उन सारे जरुरतों को पूरा कैसे किया जाए ये मेरे सोच का विषय रहा करता था क्योंकि टिफिन ना मिलने पर या कई बार ऐसे ही पच्चीस पैसे हाथ में थमा दिए जाते थे. बस उसी पैसे को लेकर मैं स्कूल पहुँचती और पूरे समय छुट्ट्ी होने की कल्पना किया करती कि पच्चीस पैसे का क्या क्या खरीदूंगी. चटनी और गुड़ सिगरेट खरीदने के बाद तो पैसे बचते नहीं कि जिससे हॉट डाग आ सके. तो... पैसे की चोरी ......
घर में काफी पैसे थे और खास कर पापा के तकिये के नीचे तो बेसुमार पैसे. मेरी नजर में वे पैसे कैद नहीं हो पाते थे क्योकि अपनी तो औकाद पच्चीस पैसे की थी. तो चोरी शुरू हुई उन सारे जरुरतों को पूरा करने के लिए. थोडी थोडी चोरी कर हॉट डाग रास्ते में खरीदते हुए स्कूल पहुंचती दोस्तों को दिखाते हुए खाती. बडा मजा आता. जब सारी जरुरते पूरी होने लगी तो इच्छा जगी रिक्शे से स्कूल जाने की. मजबूरी थी रिक्शा तो घर आ नही् सकता था, पोल खुल जाती तो ऐसा उपाय लगाया कि पोल भी ना खुले और मेरी मन की मुराद भी पूरी हो जाए. किया ऐसा की आते वक्त मैने रिक्शा करवा लिया और पैसे तय हुए तीस रुपए. घर के बहुत पहले ही मैं रिक्शे से उतर जाती और अगर किसी ने अगर मां को कह भी दिया तो मैं देती कि दोस्त ने मुझे बैठा लिया था. इस तरह से मेरा बचपन बड़े मजे से गुजर रहा था कि हुआ वही जो हर चोरी करने वाले का होता है - मेरे ख्रच की रफ्तार बढ़ाती गई और मैं सबकी नजर पर चढ़ती गई. किसी ने मां को बतला दिया की मैं बहुत टॉफी वैगरह खरीद रही हूं. पापा तक बात पहूंची और पापा ने मुझे झूठ बोलने के लिए पीटा. मुझे याद है पापा ने मुझे पहली बार पीटा था. और आज तक पिटाई तो याद नहीं पर यह दिल में बैठ गया कि पैसा बहुत गंदा चीज है. मेरा मोह टूट गया. सच बिल्कुल सच उस दिन के बाद से मुझे पैसे से नफरत सी हो गई. हालाकि मैं उसके बाद भी चोरी करके ही रिक्शेवाले को तीस रुपय दे पाई थी. और उसके बाद से मैने पैसे से तौबा कर लिया. पता नहीं उस चोरी के बाद या फिर जीवन के अनुभव ने मुझे मैटलिस्टुक चिजों से दूर कर दिया. इस कारण अब मैं कम पैसे या ज्यादा पैसे होते हुए भी खुश रहती हूं.
मेरी चोरी तो मुझे सार्थक दिखती है अब.
बुधवार, 4 जून 2008
हमारा बचपन और हम
मैं और मेरे पति अक्सर फुरसत के पलों में अपने बचपन की घटनाओं को याद करते कभी रोमांच से सिहर जाते हैं, तो कभी रुआंसा। मैने अपने से इतर भी कई बार महसुस किया है कि लोग अपनी बचपन की घटना सुनाते वक्त कितने उत्साहित हो जाते है अगर कुछ दुखद घटा हो तो थोड़ी देर के लिए दुखित भी हो जाते हैं. मतलब कि हम सब अपने बचपन को अपने यादों की एलबम में सजोए, दिल से लगाए रहते हैं. फुरसत में यादों के पलों को सांझा करने के रोमांच में कई बार घटनाओं को इतने बढ़ा चढा कर बोलते हैं कि सुनने वाला भी अपने हिसाब से ही उस घटना को रिसीव करता है. फेंकी हुई बातें खुद ही छांट लेता है. पर किस्से सुनने- सुनाने में मजेदार होते है। बस इसी आइडिया को लेकर लेकर हमारा बचपन नामक का यह बच्चा ब्लाग आपके सामने हाजिर है।
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