शनिवार, 6 जून 2009

भगवान याद आ रहें हैं।

भगवान याद आ रहें हैं।
मुझे लोग नास्तिक समझते हैं तो मुझे अच्छा भी लगता है और बुरा भी। अच्छा
इसलिए ताकि कोई मुझे पूजा-पाठ करने या कोई व्रत करने को ना कह दे। और
बुरा इसलिए कि मैं ईश्वर को दिल से महसूस करती हूं सिर्फ पोंगा पंडिती
नहीं कर सकती। ब्राह्मण औऱ ऊपर से औरत होने के नाते समाज मुझसे शाकाहारी
होने की उम्मीद भी रखता हैं। पर मैं ठहरी नास्तिक। पंजाब, हरियाणा यहां
तक की दिल्ली में भी जब कोई अपने भौं चढाकर या घृणित सा चेहरा बना कर
पूछता क्या आप नोनवेज खाती हैं तो मुझे बड़ा अजीब लगता है।

मुझे लगता है कि यह (अव) गुण मेरे पापा से मुझे मिला है, जो हर चीज को
पहले विग्यान से परखते की बात करते हैं. साथ ही किसी से कोई भी चीज पाकर,
देकर, किसी से मिलकर भगवत कृपा की बात करते है तो मुझे आश्चर्य होता है।
मैं भी भगवान को मानती हूं और उनकी कृपा को भी।
मेरी सासुमां अपनी काकी (चाची) से मिलवाने मुझे ले गई। चूंकि काकी मेरे
घर पानीपत में आई थी इसलिए मुझे उनसे कुछ खास लगाव हो गया था उनहे देखने
का मन कर रहा था। मैं पहली बार उनके घर गई थी एक सुंदर सी बहु दिखी वह
अपनी बहन को बुलवा कर उनकी सेवा में लगी थी और हमलोग को भी पूरा समय दे
पा रही थी। काकी की मानसिक स्थिति खराब हो गई है। वह रोजाना एक ही बात की
रट लगाती रही है। मैं उनको देखकर बिल्कुल घबड़ा सी गई। नाना जी (काकी के
पति) भी थोडी देर हमारे साथ खड़े रहे।
मैं खुद को उनके जगह रख कर देख रही थी कि मेरी भी यह स्थिति हो सकती है।
मेरे पति भी जो आज मुझे संकटमोचक दिखते हैं कभी बिल्कुल बेसहारा हो जाए
औऱ मैं जीते जी उनको पहचान नहीं पाऊ। अपने बच्चों को ना पहचानू। कितनी
दुखद स्थिति होगी। सोच ही अकल्पनिय है।
फिर दूसरी जगह मैं गई थी, जहां परिवार सामुहिक रुप मे रहता है और उसमें
से एक बच्चा मानसिक रुप से बीमार है। वह भी दुखद स्थिति थी। मैं बहुत
परेशान हो जाती हूं जब भी यह सब देखती हूं। उसकी मां उस बच्चे को संभालने
में दिन भर लगी रहती है। मैंने महसूस किया मैं अपनी एक साल की बेटी की
चंचलता से परेशान हो उठती हूं तो वह अपने सोलह साल के लड़के से परेशान हो
जाती है। और परिवार के सारे बच्चे स्वस्थ है तो उस मां को कैसा लगता होगा
जो अपनी बात बोल भी नहीं पाता है और शरीर से बड़ा होता चला जा रहा है।
कल मुझे एक और स्थिति का सामना करना है मेरी गायनोक्लोजिस्ट आंटी को
कैंसर हो गया है। वह कभी हमारी पड़ोस में रहती थी. जब वह हमारे शहर में
पहली बार आयी थी तो उनके बगल वाले फ्लैट में रहने के नाते हम ही उनके
पहले पडोसी थे । वह देखने में बिल्कुल हेमामालिनी की तरह दिखती है. उनके
पति डरमोटलोजिस्ट हैं। बहुत प्यारी सी आंटी हमें पढ़ने को बहुत उत्साहित
करती थी। अब वह किसी से मिलती नहीं है देखें कल मुझसे मिलेगी कि नहीं।
उनके बारे में सुनकर मैं बेचैन हो गई। मैं सोचने पर मजबूर हो गई कि लोग
क्यों घर, गाड़ी, बैंक बैलेंस के पीछे पडे रहते हैं जब कभी भी किसी का भी
भगवान की तरफ से कोई गारंटी नहीं है।

लोग अगर इसे कर्म का फल कहते हैं तो यह कर्म भी हमसे हमारा भगवान ही
करवाता है यानि हम सिर्फ कठपुतली है। इस शरीर से जितना हमलोग प्यार करते
हैं उतना ही यह कष्ट देने में माहिर है और कोई भी कभी भी किसी भी स्थिति
में आ सकता है। स्वस्थ शरीर रोगी हो सकता है, अमीर रातों रात गरीब बन
जाता है यह सब उसी परमेश्वर की कृपा है।

मैंने कुछ भी नया नहीं लिखा है। हर आदमी यह सब जानता है पर फिर भी अपने
को नस्वर समझने की भूल करता है। उसे लगता है कि कोई दूह चीज मेरे साथ
घटित नहीं हो सकता। पर जब कभी भी सोचने को बैठता है तो वह घबड़ा जाता है
कि मौत के बाद क्या ? फिर भगवान याद आते है।
आज मैं भी वहीं खड़ी हूं मौत के बाद क्या ? और मुझे तो भगवान याद आ रहें हैं।

बुधवार, 3 जून 2009

इसके सीने से लगो, तो इसकी धड़कन

मैं गर्मी की छुट्टी में अपने बच्चों के साथ अपने शहर जमशेदपुर का मजा ले रही हूं। हर व्यक्ति का अपना शहर वही होता जहां वह अपना बचपन बिताया होता है औऱ सारे जगह तो बिल्कुल अस्थायी। अपने जमीन से दूर होने का दर्द हर वक्त झेलती हूं।
यहां आयी हूं और हर पल अपने बचपन को ढुंढती हूं। हर वक्त हर जगह घर के हर सामानों में यादें छुपी हुई है। मैने कभी कहीं पढ़ा था कि घर बड़ा चुपचाप पड़ा होता है पर जब उसके सामानों से बतियाओ तो वह भी तुम से बातें करेगा। और यह बिल्कुल सच हो रहा है मेरे साथ। घर से अगर शुरु करुं तो घर का वह सामान जो कम से कम पच्चीस साल पुराना है मुझे बहुत आकर्षित करता है औऱ जो आज भी काम में है। बरषों पुराने बर्तन से ज्यादा लगाव हो जाता है मन करता है कोई थाली अपने साथ ले जाऊं। यादों को थामना और सुखद अनुभव करना बिल्कुल अलग ख्याल है। कटोरी जिसमें कभी हमलोग दूध रोटी खाया करते थे वह यूं ही इस्तमाल में देखकर आज भी मैं दूध रोटी खाने का मन बना बैठती हूं। घर के नये सामान से कोई लगाव नहीं है मेरा, और बल्कि वह सामान जो पिछले दस सालों से घर पर है उस ओर मैं देखती भी नहीं हूं। हर वक्त तलाश रहता है कोई पुराना सा सामान को छू कर अनुभव करने का। बाथरुम में स्टील का लोटा पुराने दिनों को बरबस याद दिला जाता है। छोटा सा स्टील का बाल्टी वह भी पच्चीस साल पुराना होगा जो गाय के दूध के लिए विशेष रुप से खरीदा गया था। एक वक्त में दो किलो दूध देती गाय के लिए बाल्टी बहुत सुंदर था। आज भी सुंदर है बस स्थानांतरित हो गया है उसमें किचन का कूड़ा डाला जाता है। परदा का कपड़ा जो कि साल दर साल इस्तेमाल के बाद भी जस का तस है। घर मैं इसलिए भी आना चाहती हूं क्योंकि अगर मां-पापा से मिल भी लूं तो भी एक कमी सी बनी रहती है। घर के दिवारों को महसूस करने की कमी। वह सुगंध मैं धूल लगे किताबों में ढुंढती हूं।
मेरा छोटा सा कोसमोपोलिटन शहर सदाबहार दिखता है। बारिश हो जाने की वजह से शहर हरा भरा हो गया है। स्निग्ध स्नान किया हुआ मेरा शहर धुला पोछा हुआ दिखता है। जिधर से भी गुजर जाऐ अतिव्यवस्थित। मानो आधुनिक विश्वकर्मा (मजदूरों की इस नगरी को) ने इसे अपने हाथों से गढ़ा हो। इस शहर कि यही खासियत भी है कि यहां सभी तबके के लोग मिल जाऐंगे और सभी जाति के भी।
हवा को छुने का मन करता है पर शहर बदला बदला सा दिखता है। लोगों के चेहरे में किसी जानकार को ढुंढती हूं कि कहीं कोई मिल जाए। पर कोई नहीं मिलता। अपना शहर बेगाना हो गया है। जिस उमंग और उत्साह से एक एक स्टेशन को पार करते हुए जों ही करीब आती हूं दिल धड़कने लगता है औऱ ऐसा सोचती हूं कि कोई भी जाना पहचाना व्यक्ति मुझे स्टेशन में ही जरुर मिल जाएगा। पर आज तक मुझे स्टेशन में कोई नहीं मिला। फिर भी ढुंढती हूं निरंतर। घर से निकल कर मेरा समय लोगों को गौर से देखने में ही निकल जाता है मैं रोड़ भी क्रोस करती रहूं तो भी मेरे मन में किसी परिचित से भी अनजाने में ही मिलने की चाहत लगी रहती है।
अपनी दोस्त को ढुंढने मैं निकल पड़ी वह नहीं मिली। उसके पुराने घर (टाटा स्टील के क्वाटॆर) पर गई पर नये वाले ने कह दिया कि उसे नहीं पता कि वे लोग कहां चले गए। मैं जानती हूं वह यहीं है पर मैं उस तक नहीं पहुंच पाती हूं। मन और उदास हो गया, जब उसके बगल वाले ने बड़े ही ऱुखे स्वर में जवाब दिया कि हमलोग नहीं जानते कि वे लोग कहां चले गए हैं। पता नहीं वह समझ नहीं सकते थे कि मैं किन परिस्थितियों में उन तक पहुंची हूं।

उसे ढुंढने निकल पडी थी वह भी अपने पापा के साथ और वह मुझे नहीं मिली। मेरे पापा मुझे ले गए यह बहुत ही आश्चर्यजनक बात थी। मेरी गलती है मैने रिश्ता बिल्कुल ही खत्म कर दिया था पिछले दो साल पहले हम मिले थे। पर बचपन की सहेली जो कभी नहीं बदल सकती उसे ढुंढना चाहती हूं। मेरी इसी तरह सारी सहेलियां चली गई। गिन चुन कर पांच हम दोस्त थे। जिसमें दो तो विदेश में है औऱ एक को शहर में ढुंढ रही हूं और एक बंगाल में है। लंदन चली गई दोनो सहेलियों के बारे में भी मुझे बहुत कुछ जानना है। पिछले साल भर से बात नहीं हुई है। वह ही मुझे फोन किया करती थी और मरे पास अब उसका नंबर भी नहीं है। उम्मीद से थी पर उम्मीद में क्या मिला उसे यह मैं जानना चाहती हूं। उसके पापा के पास जाऊंगी। शायद वह कुछ पता चले।
शहर के पचास साल पूरे होने पर यहां बना जुबिली पार्क। यहां टाटा नगर के संस्थापक जमशेद जी नसरवान जी टाटा की आदमकद प्रतिमा के सामने खड़ी हूं। उनकी प्रतिमा के ठीक नीचे उनकी एक पंक्ति लिखी हुई है, अगर मुझे देखना है, तो देखो मेरे चारों ओर। सचमुच, मजदूरों की इस नगरी में आधुनिक और लघु भारत का दिल धड़कता है। इसके सीने से लगो, तो इसकी धड़कन सुनाई पड़ती है।