मंगलवार, 26 मई 2009
वट सावित्री की पूजा
आज वट सावित्री की पूजा थी। उत्तर बिहार के मिथिला और कोशी अंचल का प्रसिद्ध वट वृक्ष पूजा यानी वट सावित्री पूजा पूरे देश में मनाया गया। भारत के कुछ हिस्सों में बरगद पेड़ की पूजा होती है। बड़ा ही मजेदार पूजा होती है। बरगद की पूजा महिलाऐं अधिकतर करती है। इस दौरान पेड़ में जल डाला जाता है, दीया -बत्ती दिखाकर फूल चढाया जाता है। पेड़ के चारों तरफ अल्पना भी बनाते है। पूजा खत्म होने के बाद पेड़ की परिक्रमा की जाती है। पेड़ को धागे से लपेटा जाता है चंदन सिंदूर का लेप लगाया जाता है। औऱ सब से अंत में पेड़ से गले मिल कर उसके तने को दबाया भी जाता है।
मैं पूजा में विश्वास नहीं करती हूं और चूकि मायके में हूं तो सब का कहना मानना जरुरी भी है। और कल जब मैं दीदी को पूजा की अनिच्छा दिखाई तो उसने बड़ा सही कहा कि हमलोग को ही विरासत में अपने संस्कार कम मिला है और अगर हम यह भी नहीं करे तो आने वाले पीढी को क्या देंगे। मुझे यह बात जच गई और मैं सुबह नहा धोकर वट की पूजा करने पहुंच गई। चूकि फ्लैट में रहने और शरीर में आलस भरा होने के कारण हमलोग वट पेड के पास ना जाकर छत पर ही रखे गमले में लगे वट के डाल से पूजा कर लिये। पूजा भली भांती संपन्न हो गया जिसमें हर औरत पांच पत्तों को सजाकर प्रसाद चढाई औऱ एक पत्ते अपने सर के जूडे में खोस ली। सुंदर अति सुंदर लगा पत्ते को जूडे पर लगाना।
मुझे याद है मैं जब छोटी थी तो मां यह पूजा समुह में कर घर लोटती थी तो मां के नाक से लगे सिर तक में सिंदूर लगा होता था। और प्रसाद के रुप में पहली बार आम के सीजन में आम चखने को हमें मिलता था। औऱ उसके बाद से आम बाजार में आ जाता था।
आज समाज का विभत्स रुप देखने को मिलता है। महिलायें पेड़ के पास ना जाकर पेड़ को घर बुला लेती है। पूजा की कथा में लिखा है कि अगर वट पेड़ ना मिले तो टहनी भी चलेगी या फिर दिवार पर बनाया हुआ बरगद का चित्र से भी काम चल सकता है। पर जो हो टहनी से पूजा करना मुझे रास नहीं आया। और पत्तो को तोड़ना मेरे लिए नागवार है। हम हर वक्त विकास की बात करते है और बरगद का टहनी भी विकास का ही सूचक है पर सारा पूजा पाठ तब यूं ही बेकार हो जाता है जब ब्राहमणो द्वारा बनाया गया नियम सिर्फ यजमान को सुविधा प्रदान करता है. अगर यजमान पेड़ के पास ना जा सके तो पेड को घर ले आना कहीं से भी प्रगतिशिलता नहीं माना जाना चाहिए। पर्यावरण के साथ यूं खेल सिर्फ यजमान को सुविधा देने के लिए यह कहीं से ठीक नहीं है। और यूं ही अगर अभी भी हम यह नहीं चेते तो वह दिन भी आ जाएगा जब बरगद का चित्र दिवार पर या कपड़े पर बनाकर हमें उसकी पूजा करनी होगी।
बरगद सूचक है हमारे समाज में मजबूती का। मतलब जो मजबूत है आदरणीय है। कमजोर की पूजा नहीं होती। संस्कार में हमें यह तो नहीं बताया गया था कि पेड़ की टहनी को ही घर ले आओ। पर हम बदल रहे है हर कुछ अपने सुविधानुसार करने की कोशिश में हम पेड़ को बुरी तरह नुकसान पहु्चा रहें है। है। हम लोग भटके हुए है। पेड़ का नुकसाम कर हम खुद का नुकसान कर रहें है। औऱ सोचते हैं कि हम अपनी संसकती को बचाये हुए है। पेड से अपनत्व का संबध बनाना आज बहुत मुश्किल होता जा रहा है। समय की कमी औऱ ढेरों काम के बोझ तले दबे होने के कारण हम स्वार्थी होते जा रहें है कि हमें खुद प्रक़ती से खेलने में मजा आता है और खुद को संस्क़ती से जुड़े होने का ढोंग करने में मजा आता है।
बरदग के पूजा की सोच बहुत ही दिलचस्प रही होगी । जिस तरह प्रक़ती में पेड़ के बिना काम नहीं चल सकता ठीक उसी तरह घर में पति के बिना काम नहीं चल सकता। दोनो को खुश रखना औऱ प्यार, सम्मान देना जरुरी है। तो पूजा में बरगद को चढाया हुआ जल लाकर पति के पांव धोये जाते हैं उसे मिठाई और प्रसाद दी जाती है। इस पूजा की सोच बहुत अच्छी है उस वक्त पति से प्यार का इजहार भी अनोखा था। पेड़ को मजबूत औऱ रच्छक के रुप में देखा जाता था और पति भी उसा का पर्याय होता था। पर इजहार सीधा ना कर के दोनो को एक सुत्र में बांधा जाता था। यह एक मूक इजहार था पति औऱ पत्नी के बीच के संबध को प्रगाढ़ करने का जहां दुनियां का कोई भी आरचीज का कार्ड डिजाइनर इस प्यार को आलेखित नहीं कर सकता।
गुरुवार, 21 मई 2009
हम और मैं के बीच का फासला
दो शब्द हम और मैं- अर्थ एक। यह दो शब्द सभी कोई अपने को अभिव्यक्त करने के लिए अक्सर करते हैं. व्याकरण की बात ना करें तो खुद को अभिव्यक्त करने के लिए मैं बचपन से पिछले दो साल तक हम शब्द का प्रयोग ही करती थी। औऱ मुझे यह अच्छा लगता था। कोई अगर मैं कहता तो मुझे लगता यह क्यों मैं मिया रहा है। प्राय ऐसा होता कि लोग जब अपने शहर को छोड़ दूसरे शहर से आते तो मैं मियाते दिखते।
कई बार लोगों से बहस हो जाती है, हम औऱ मैं शब्दों के बीच। प्रायः सभी हम शब्द से प्यार करते थे पर दूसरे शहर की आवोहवा के अनुसार ढलने के लिए अपने को मौडरेट करते हुए मैं पर उतर आते है। और फिर वही अच्छा लगने लगता। बहस के दौरान बात उठती कि हम शब्द से हम अपने को पूरी तरह अभिव्यक्त तो कर पाते ही है और साथ साथ ऐसा भी लगता है कि मेरे साथ और भी कोई खड़ा है मेरे तरफ से। हम शब्द से एक समुह का आभास होता है जो साथ साथ है मेरे पर मैं बहुत एकाकी है। बिल्कुल अकेला। पर मजबूत। सख्त स्तंभ की तरह। कोई हिला डुला नहीं सकता।
यह भी एक फर्क है ऐसा मैं मानती हूं एक शाकाहारी और मांसाहारी व्यक्ति की सोच जैसा। जिस तरह मांस खाने से बुद्धि की गती दूसरी होती है और नहीं खाने से दूसरी। जिस तरह खानपान हमारे व्यक्तित्व को दिखाता है ठीक वैसे ही यह दो शब्द से मैं अपने आप को पहचान ने की कोशिश करती हूं। मैं करीब पिछले नौ साल से अपने छोटे से शहर को छोड़ दूसरे राज्यों में घूमती रही हूं और पिछले चार साल से दिल्ली में रह रही हूं। तो पिछले दो साल में कब मेरे अंदर यह मैं घुस गया यह मुझे खुद पता ही नहीं चला।
अब मुझे मैं बोलना अच्छा लगता है इस से मुझ में आत्मविश्वास की भावना पैदा होती है अपनी बात को जब मजबूती से रखना हो तो मैं खुद को मैं शब्द से ही अभिव्यक्त करना पसंद करती हूं। मैं शब्द में स्पष्टता दिखती है और स्वार्थी होने का गुण भी झलकता है। स्वार्थी व्यक्ति जैसे सिर्फ खुद के विषय में सोचता है वैसे ही मैं मतलब सिर्फ मैं और कोई नहीं अंदर बाहर कोई नहीं अकेला निर्विकार खड़ा व्यक्ति।
तो बात यहां से उठी कि मैं अपने शहर जमशेदपुर आयी हुई हूं और मेरी आठ साल की बेटी श्रुति ने मुझ से यह कह दिया है कि मैं यहां आकर यहां कि भाषा में ही बोलूंगी मतलब वह खुद को हम कह कर पुकारती है। और उसके हम शब्द के उच्चारण में सारे अपनत्व के साथ साथ पूरा आत्मविश्वास भी दिखता है। बहुत मजबूती से वह खुद को अभिव्यक्त करने के लिए हम का उच्चारण करती है।
कई बार लोगों से बहस हो जाती है, हम औऱ मैं शब्दों के बीच। प्रायः सभी हम शब्द से प्यार करते थे पर दूसरे शहर की आवोहवा के अनुसार ढलने के लिए अपने को मौडरेट करते हुए मैं पर उतर आते है। और फिर वही अच्छा लगने लगता। बहस के दौरान बात उठती कि हम शब्द से हम अपने को पूरी तरह अभिव्यक्त तो कर पाते ही है और साथ साथ ऐसा भी लगता है कि मेरे साथ और भी कोई खड़ा है मेरे तरफ से। हम शब्द से एक समुह का आभास होता है जो साथ साथ है मेरे पर मैं बहुत एकाकी है। बिल्कुल अकेला। पर मजबूत। सख्त स्तंभ की तरह। कोई हिला डुला नहीं सकता।
यह भी एक फर्क है ऐसा मैं मानती हूं एक शाकाहारी और मांसाहारी व्यक्ति की सोच जैसा। जिस तरह मांस खाने से बुद्धि की गती दूसरी होती है और नहीं खाने से दूसरी। जिस तरह खानपान हमारे व्यक्तित्व को दिखाता है ठीक वैसे ही यह दो शब्द से मैं अपने आप को पहचान ने की कोशिश करती हूं। मैं करीब पिछले नौ साल से अपने छोटे से शहर को छोड़ दूसरे राज्यों में घूमती रही हूं और पिछले चार साल से दिल्ली में रह रही हूं। तो पिछले दो साल में कब मेरे अंदर यह मैं घुस गया यह मुझे खुद पता ही नहीं चला।
अब मुझे मैं बोलना अच्छा लगता है इस से मुझ में आत्मविश्वास की भावना पैदा होती है अपनी बात को जब मजबूती से रखना हो तो मैं खुद को मैं शब्द से ही अभिव्यक्त करना पसंद करती हूं। मैं शब्द में स्पष्टता दिखती है और स्वार्थी होने का गुण भी झलकता है। स्वार्थी व्यक्ति जैसे सिर्फ खुद के विषय में सोचता है वैसे ही मैं मतलब सिर्फ मैं और कोई नहीं अंदर बाहर कोई नहीं अकेला निर्विकार खड़ा व्यक्ति।
तो बात यहां से उठी कि मैं अपने शहर जमशेदपुर आयी हुई हूं और मेरी आठ साल की बेटी श्रुति ने मुझ से यह कह दिया है कि मैं यहां आकर यहां कि भाषा में ही बोलूंगी मतलब वह खुद को हम कह कर पुकारती है। और उसके हम शब्द के उच्चारण में सारे अपनत्व के साथ साथ पूरा आत्मविश्वास भी दिखता है। बहुत मजबूती से वह खुद को अभिव्यक्त करने के लिए हम का उच्चारण करती है।
गुरुवार, 14 मई 2009
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे
ट्रेन में बैठे दो बंगाली- आशुन बोशुन- आशुन बोशुन, आशुन बोशुन होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे....
ट्रेन में बैठे दो मद्रासी - इड़ली-दोसा, इडली-दोसा, इडली-दोसा होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे....
पता नहीं यह गीत पापा ने कहा से सीखा हो पर हमें तब पता चला जब मैं पहली बार अपने परिवार के साथ में ट्रेन यात्रा कर रही थी। उस वक्त मैं शायद तीसरी क्लास में होंगी। फिर कभी याद भी नहीं कि हमलोग एक साथ कभी ट्रेन की यात्रा किये भी कि नहीं.
अब मुझे अपनी दो बेटियों के साथ एक ट्रेन की यात्रा करनी है। तो मेरी सबसे पहली शर्त है कि कम से कम एसी की टिकट। नहीं तो मायके जाने के का भी प्रोग्रोम कैंसिल। ऐसे में वह मेरी पहली यात्रा की याद आ रही है। ...
मुझे जो थोड़ा बहुत याद है कि पापा जब अपने एक महीने की विदेश यात्रा से लौटे तो हमलोग अपनी दादी घर पूसा जाने की तैयारी करने लगे। तैयारी करना मतलब मुझे कपड़े तो नहीं समेटने थे पर मेरी तैयारी मतलब, कि मैं देख लूं कि मेरे पेड़ में अमरुद काफी पक चुका है तो और कोई और ना तोड़ ले इसलिए किसी मजबूत आदमी की मदद से पेड़ हिलवाना और बिल्कुल
पके 50-70 अमरुद गिरे और मैं सारे को पैक कर ले जाना। ऐसा कर पाई कि नहीं, ठीक से याद नहीं. रात को मां निकलते वक्त पैर में आलता लगा रही थी। मैंने देखा और मां की नजर बचा कर आलता पर हाथ साफ कर रही थी, तभी पकड़ी गई मां ने देख लिया तो मुझे एक ही पैर में आलता लगाए पूसा तक जाना पड़ा। बस, ये बातें यादों के एलबम में है।
उस वक्त हमलोग दो या तीन ट्रेन का नाम ही जानते थे- टाटा पटना, टाटा मुजफ्परपुर, और सुपरफास्ट। कई लोग तो सात बजे या दस बजे वाली गाड़ी के नाम से भी जानते थे। ट्रेन में बैठने के बाद पापा जी का मस्ती शुरु होता था। और मैं सबसे ऊपर के बर्थ पर जा कर बैठ गई। बड़ा मजा आता था छोटपन में ऊपर के बर्थ पर बैठने में। हम सभी चार भाई बहन को पापा ने गाना सिखाया और हमलोग खूब मजे से गाना गाते हुए सो गए। सुबह उठे तो हमारा बड़ा वाला वीआईपी गायब था। उसमें हम सब के नए कपड़े, पापा की विदेश यात्रा से लाए कई सामान जिसमें मुख्य रुप से कैमरा और मां का पांच रुपए का नया गड्डी चला गया। सुबह ही हम सब का मुड खराब हो गया पर पापा मस्त थे।
ट्रेन में सुबह होते ही गर्मी लगने लगी और लोग सभी ने पंखे और सुराही खरीदना शुरु किया। बड़ा मजेदार दृश्य होता था तब जब लोग दिन के वक्त क्या रात के वक्त भी पानी भरा सुराही खरीदते थे और हाथ पंखा। उस समय लोग यह भी नहीं देखते थे कि सुराही का पानी कहां से भरा है बस पानी होना चाहिए औऱ मन को तृप्त करना चाहिए। सुबह होते ही कुछ अंदाज में चाय-पूड़ी-सब्जी की आवाज लगाते वेंडर मेरे कौतूहल के पात्र थे। टाटा-पटना ट्रेन में बैठने का मेरे लिए मुख्य आकर्षण था, आद्रा स्टेशन पर बिकने वाला केक। यहां केक खाकर कुछ देर के लिए मन में बड़ड़पन आ जाता था क्योंकि केक वगैरह तो बड़े लोग ही खाते थे।
तो मैं देख रही हूं बदलता समाज नहीं है, हम ही बदल जाते है। वह समय भी याद है जब ट्रेन के सफर के लिए लोग सबसे खराब कपड़े का एक जोड़ा अलग रखते थे। चेहरा काला काला भी हो जाता था। पर आज ट्रेन के सफर के लिए अलग से कपड़ा नहीं होता। पिछली बार जब मैं राजधानी से लौट रही थी तो नया सूट पहन लिया था क्योंकि अब ट्रेन का स्तर देख कर कपड़ा पहनने रिवाज है। नहीं तो लोग क्या सोचेंगे, का डर समाया रहता है। और चूकि सब जानते हैं कि कोई कुछ भी नहीं सोचेगा। क्योंकि कब किसका स्टेशन आ जाए पता ही नहीं चलेगा।
पुनीता
ट्रेन में बैठे दो बंगाली- आशुन बोशुन- आशुन बोशुन, आशुन बोशुन होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे....
ट्रेन में बैठे दो मद्रासी - इड़ली-दोसा, इडली-दोसा, इडली-दोसा होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे....
पता नहीं यह गीत पापा ने कहा से सीखा हो पर हमें तब पता चला जब मैं पहली बार अपने परिवार के साथ में ट्रेन यात्रा कर रही थी। उस वक्त मैं शायद तीसरी क्लास में होंगी। फिर कभी याद भी नहीं कि हमलोग एक साथ कभी ट्रेन की यात्रा किये भी कि नहीं.
अब मुझे अपनी दो बेटियों के साथ एक ट्रेन की यात्रा करनी है। तो मेरी सबसे पहली शर्त है कि कम से कम एसी की टिकट। नहीं तो मायके जाने के का भी प्रोग्रोम कैंसिल। ऐसे में वह मेरी पहली यात्रा की याद आ रही है। ...
मुझे जो थोड़ा बहुत याद है कि पापा जब अपने एक महीने की विदेश यात्रा से लौटे तो हमलोग अपनी दादी घर पूसा जाने की तैयारी करने लगे। तैयारी करना मतलब मुझे कपड़े तो नहीं समेटने थे पर मेरी तैयारी मतलब, कि मैं देख लूं कि मेरे पेड़ में अमरुद काफी पक चुका है तो और कोई और ना तोड़ ले इसलिए किसी मजबूत आदमी की मदद से पेड़ हिलवाना और बिल्कुल
पके 50-70 अमरुद गिरे और मैं सारे को पैक कर ले जाना। ऐसा कर पाई कि नहीं, ठीक से याद नहीं. रात को मां निकलते वक्त पैर में आलता लगा रही थी। मैंने देखा और मां की नजर बचा कर आलता पर हाथ साफ कर रही थी, तभी पकड़ी गई मां ने देख लिया तो मुझे एक ही पैर में आलता लगाए पूसा तक जाना पड़ा। बस, ये बातें यादों के एलबम में है।
उस वक्त हमलोग दो या तीन ट्रेन का नाम ही जानते थे- टाटा पटना, टाटा मुजफ्परपुर, और सुपरफास्ट। कई लोग तो सात बजे या दस बजे वाली गाड़ी के नाम से भी जानते थे। ट्रेन में बैठने के बाद पापा जी का मस्ती शुरु होता था। और मैं सबसे ऊपर के बर्थ पर जा कर बैठ गई। बड़ा मजा आता था छोटपन में ऊपर के बर्थ पर बैठने में। हम सभी चार भाई बहन को पापा ने गाना सिखाया और हमलोग खूब मजे से गाना गाते हुए सो गए। सुबह उठे तो हमारा बड़ा वाला वीआईपी गायब था। उसमें हम सब के नए कपड़े, पापा की विदेश यात्रा से लाए कई सामान जिसमें मुख्य रुप से कैमरा और मां का पांच रुपए का नया गड्डी चला गया। सुबह ही हम सब का मुड खराब हो गया पर पापा मस्त थे।
ट्रेन में सुबह होते ही गर्मी लगने लगी और लोग सभी ने पंखे और सुराही खरीदना शुरु किया। बड़ा मजेदार दृश्य होता था तब जब लोग दिन के वक्त क्या रात के वक्त भी पानी भरा सुराही खरीदते थे और हाथ पंखा। उस समय लोग यह भी नहीं देखते थे कि सुराही का पानी कहां से भरा है बस पानी होना चाहिए औऱ मन को तृप्त करना चाहिए। सुबह होते ही कुछ अंदाज में चाय-पूड़ी-सब्जी की आवाज लगाते वेंडर मेरे कौतूहल के पात्र थे। टाटा-पटना ट्रेन में बैठने का मेरे लिए मुख्य आकर्षण था, आद्रा स्टेशन पर बिकने वाला केक। यहां केक खाकर कुछ देर के लिए मन में बड़ड़पन आ जाता था क्योंकि केक वगैरह तो बड़े लोग ही खाते थे।
तो मैं देख रही हूं बदलता समाज नहीं है, हम ही बदल जाते है। वह समय भी याद है जब ट्रेन के सफर के लिए लोग सबसे खराब कपड़े का एक जोड़ा अलग रखते थे। चेहरा काला काला भी हो जाता था। पर आज ट्रेन के सफर के लिए अलग से कपड़ा नहीं होता। पिछली बार जब मैं राजधानी से लौट रही थी तो नया सूट पहन लिया था क्योंकि अब ट्रेन का स्तर देख कर कपड़ा पहनने रिवाज है। नहीं तो लोग क्या सोचेंगे, का डर समाया रहता है। और चूकि सब जानते हैं कि कोई कुछ भी नहीं सोचेगा। क्योंकि कब किसका स्टेशन आ जाए पता ही नहीं चलेगा।
पुनीता
बुधवार, 6 मई 2009
आज वर्ल्ड नो डाइट डे है
आज वर्ल्ड नो डाइट डे है
यह वाक्य पढ़ कर हम भारतीय के चेहरों पर अजीब सी हंसी बिखर जाती है। भारत की जनता यह डे रोज ही मनाने की आदि है। और भारत जैसे देशों के लिए यह दिन मनाना गैर जरुरी है ऐसा हम सभी मानते है।
-जब जीरो दिया मेरे भारत ने- गीत की यह पंक्ति आज भी मुझे उतना ही रोमांचित करती है जितना मेरे बचपन में मुझे किया करती थी क्योंकि बचपन में ही आप देश भक्ति की भावना को महसूस कर सकते हैं बाद में तो हम सरकार
की नाकामियां गिनाने और अपने देश पर शर्मिन्दा होना सीख जाते हैं.
हां तो यह पंक्ति मुझे इसलिए याद आई क्योंकि हमारा देश चाहे गरीब रहा हो पर समृद्ध घरों में भी उपवास का बहुत महत्व था और आज भी है। लोग मजाक में कहते हैं कि भारत में तो 365 दिन पर्व ही मनाया जाता है तो मैं अब सोच
रही हूं कि हमारे पूर्वज पहले से ही इतने भविष्यवक्ता थे कि वह गरीब और धनवानों के लिए अलग अलग कायदे कानून बना रखे थे। वे जानते थे कि गरीब व्यक्ति को चूकि रोटी पाने के लिए हाड़ तोड़ कोशिश करनी पड़ेगी सो उन्हें उपवास की महता बताने की जरुरत नहीं थी। पर कुछ प्रतिशत खाते पीते लोग जो ज्यादा ही खा लेते हैं भोजन की सुगम उपलब्धता के कारण तो उनके लिए और उसमें खास कर उन घरों की महिलाओं के लिए जो घर पर ही रहती थी, उनके लिए उपवास नियम बनाया गया। चूकि समृद्ध लोग नियम माने इसलिए उनलोगों ने हम महिलाओं से इमोशनल अत्याचार भी किया। पति के नाम पर, बच्चों के नाम पर और सूर्य के नाम पर कठिन व्रत का नियम बना दिया।
संसार, जिसमें कई देश अफरात अमीर है तो कई देश गरीब अपने अपने सुविधा के अनुसार यह डे मना सकते हैं। भूखों को मनाने की जरुरत नहीं और समृद्ध मनाने से रहे। मेरे बडे चाचा जो पेशे से सरकारी डॉक्टर हैं वह हर रविवार को अपने घर की
सारी घडि़यां बंद रखते है। शायद वह जानते हैं कि शरीर को जैसे आराम की जरुरत होती है वैसे ही मशीन को भी होती होगी। यह उनकी सोच है, पर हम भारतिय जब हमारी रोजमर्रार की चीजों को लेकर इतने संवेदनशील है तो शरीर को लेकर तो हम रहेंगे ही। शरीर से ही दूनिया हमें सुंदर दिखेगी। इसतरह मेरे पापा हर रविवार को रात का खाना एवायड़ करते हैं। और पूरे दिन के उपवास से दूर भागते है।
मैं सोच रही थी पश्चमी देश अब कितना बदल रहा है जो भारत को सांपो और तमाशो का देश समझता आ रहा था वह अब भारत की संस्कृति को चाहे प्रयोगशाला में जांच कर धीरे धीरे मानने लगा हो चाहे जैसे भी हो। वहां डॉटरस डे, हसबेंड डे, फादरस डे, आदि ना जाने कौन कौन सा दिन मनाने का प्रचलन शुरु हो रहा है। वे लोग भी अब भारतियों की तरह परिवारवाद के महत्व को समझ रहें है। रिश्तों के टूटन एक गंभीर दूर्घटना है। शारीरिक टूट तो ठीक हो जाती है पर रिश्ते जब कमजोर पड़ जाते हैं तो असुरक्षा की भावना जग जाती है जो किसी को भी दबोच सकती है और वह किसी भी पल डिप्रेशन का शिकार हो जाता है।
हमारे यहां डिप्रेशन नाम का कोई शब्द नहीं था। लोग परिवारों में रहते हैं चाहे वह पेशेवश दूर शहर में रहें पर रिश्तों की गर्माहट से हमेशा जुड़े होते हैं। आज भी परिवार में एक व्यक्ति का दर्द दूसरा महसूस कर पाता है। जैसे पश्चिमी देश हमारा अनुशरण धीरे धीरे कर रहा है वैसे ही हमारी पीढ़ी भी विकसित देशों का अनुशरण कर रही है औऱ वहीं दिक्कतों का सामना कर रही है जो वे लोग वहां कर रहे हैं और साल में एक दिन नो ड़ाइट डे मनाने को प्रतिबद्ध हैं। भारतियों की इस पीढी और अगले आनेवाली पीढ़ी को यह समझना चाहिए कि हम अपनी चीज को खोकर फिर से सीखनेवाली स्थीति में ना आ जाऐं।
यह वाक्य पढ़ कर हम भारतीय के चेहरों पर अजीब सी हंसी बिखर जाती है। भारत की जनता यह डे रोज ही मनाने की आदि है। और भारत जैसे देशों के लिए यह दिन मनाना गैर जरुरी है ऐसा हम सभी मानते है।
-जब जीरो दिया मेरे भारत ने- गीत की यह पंक्ति आज भी मुझे उतना ही रोमांचित करती है जितना मेरे बचपन में मुझे किया करती थी क्योंकि बचपन में ही आप देश भक्ति की भावना को महसूस कर सकते हैं बाद में तो हम सरकार
की नाकामियां गिनाने और अपने देश पर शर्मिन्दा होना सीख जाते हैं.
हां तो यह पंक्ति मुझे इसलिए याद आई क्योंकि हमारा देश चाहे गरीब रहा हो पर समृद्ध घरों में भी उपवास का बहुत महत्व था और आज भी है। लोग मजाक में कहते हैं कि भारत में तो 365 दिन पर्व ही मनाया जाता है तो मैं अब सोच
रही हूं कि हमारे पूर्वज पहले से ही इतने भविष्यवक्ता थे कि वह गरीब और धनवानों के लिए अलग अलग कायदे कानून बना रखे थे। वे जानते थे कि गरीब व्यक्ति को चूकि रोटी पाने के लिए हाड़ तोड़ कोशिश करनी पड़ेगी सो उन्हें उपवास की महता बताने की जरुरत नहीं थी। पर कुछ प्रतिशत खाते पीते लोग जो ज्यादा ही खा लेते हैं भोजन की सुगम उपलब्धता के कारण तो उनके लिए और उसमें खास कर उन घरों की महिलाओं के लिए जो घर पर ही रहती थी, उनके लिए उपवास नियम बनाया गया। चूकि समृद्ध लोग नियम माने इसलिए उनलोगों ने हम महिलाओं से इमोशनल अत्याचार भी किया। पति के नाम पर, बच्चों के नाम पर और सूर्य के नाम पर कठिन व्रत का नियम बना दिया।
संसार, जिसमें कई देश अफरात अमीर है तो कई देश गरीब अपने अपने सुविधा के अनुसार यह डे मना सकते हैं। भूखों को मनाने की जरुरत नहीं और समृद्ध मनाने से रहे। मेरे बडे चाचा जो पेशे से सरकारी डॉक्टर हैं वह हर रविवार को अपने घर की
सारी घडि़यां बंद रखते है। शायद वह जानते हैं कि शरीर को जैसे आराम की जरुरत होती है वैसे ही मशीन को भी होती होगी। यह उनकी सोच है, पर हम भारतिय जब हमारी रोजमर्रार की चीजों को लेकर इतने संवेदनशील है तो शरीर को लेकर तो हम रहेंगे ही। शरीर से ही दूनिया हमें सुंदर दिखेगी। इसतरह मेरे पापा हर रविवार को रात का खाना एवायड़ करते हैं। और पूरे दिन के उपवास से दूर भागते है।
मैं सोच रही थी पश्चमी देश अब कितना बदल रहा है जो भारत को सांपो और तमाशो का देश समझता आ रहा था वह अब भारत की संस्कृति को चाहे प्रयोगशाला में जांच कर धीरे धीरे मानने लगा हो चाहे जैसे भी हो। वहां डॉटरस डे, हसबेंड डे, फादरस डे, आदि ना जाने कौन कौन सा दिन मनाने का प्रचलन शुरु हो रहा है। वे लोग भी अब भारतियों की तरह परिवारवाद के महत्व को समझ रहें है। रिश्तों के टूटन एक गंभीर दूर्घटना है। शारीरिक टूट तो ठीक हो जाती है पर रिश्ते जब कमजोर पड़ जाते हैं तो असुरक्षा की भावना जग जाती है जो किसी को भी दबोच सकती है और वह किसी भी पल डिप्रेशन का शिकार हो जाता है।
हमारे यहां डिप्रेशन नाम का कोई शब्द नहीं था। लोग परिवारों में रहते हैं चाहे वह पेशेवश दूर शहर में रहें पर रिश्तों की गर्माहट से हमेशा जुड़े होते हैं। आज भी परिवार में एक व्यक्ति का दर्द दूसरा महसूस कर पाता है। जैसे पश्चिमी देश हमारा अनुशरण धीरे धीरे कर रहा है वैसे ही हमारी पीढ़ी भी विकसित देशों का अनुशरण कर रही है औऱ वहीं दिक्कतों का सामना कर रही है जो वे लोग वहां कर रहे हैं और साल में एक दिन नो ड़ाइट डे मनाने को प्रतिबद्ध हैं। भारतियों की इस पीढी और अगले आनेवाली पीढ़ी को यह समझना चाहिए कि हम अपनी चीज को खोकर फिर से सीखनेवाली स्थीति में ना आ जाऐं।
रविवार, 3 मई 2009
ट्रेन में झ न नन - झ न नन होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे
ट्रेन में बैठे दो बंगाली- आशुन बोशुन- आशुन बोशुन, आशुन बोशुन होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे....
ट्रेन में बैठे दो मद्रासी - इड़ली-दोसा, इडली-दोसा, इडली-दोसा होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे....
पता नहीं यह गीत पापा ने कहा से सीखा हो पर हमें तब पता चला जब मैं पहली बार अपने परिवार के साथ में ट्रेन यात्रा कर रही थी। उस वक्त मैं शायद तीसरी क्लास में होंगी। फिर कभी याद भी नहीं कि हमलोग एक साथ कभी ट्रेन की यात्रा किये भी कि नहीं.
अब मुझे अपनी दो बेटियों के साथ एक ट्रेन की यात्रा करनी है। तो मेरी सबसे पहली शर्त है कि कम से कम एसी की टिकट। नहीं तो मायके जाने के का भी प्रोग्रोम कैंसिल। ऐसे में वह मेरी पहली यात्रा की याद आ रही है। ...
मुझे जो थोड़ा बहुत याद है कि पापा जब अपने एक महीने की विदेश यात्रा से लौटे तो हमलोग अपनी दादी घर पूसा जाने की तैयारी करने लगे। तैयारी करना मतलब मुझे कपड़े तो नहीं समेटने थे पर मेरी तैयारी मतलब, कि मैं देख लूं कि मेरे पेड़ में अमरुद काफी पक चुका है तो और कोई और ना तोड़ ले इसलिए किसी मजबूत आदमी की मदद से पेड़ हिलवाना और बिल्कुल
पके 50-70 अमरुद गिरे और मैं सारे को पैक कर ले जाना। ऐसा कर पाई कि नहीं, ठीक से याद नहीं. रात को मां निकलते वक्त पैर में आलता लगा रही थी। मैंने देखा और मां की नजर बचा कर आलता पर हाथ साफ कर रही थी, तभी पकड़ी गई मां ने देख लिया तो मुझे एक ही पैर में आलता लगाए पूसा तक जाना पड़ा। बस, ये बातें यादों के एलबम में है।
उस वक्त हमलोग दो या तीन ट्रेन का नाम ही जानते थे- टाटा पटना, टाटा मुजफ्परपुर, और सुपरफास्ट। कई लोग तो सात बजे या दस बजे वाली गाड़ी के नाम से भी जानते थे। ट्रेन में बैठने के बाद पापा जी का मस्ती शुरु होता था। और मैं सबसे ऊपर के बर्थ पर जा कर बैठ गई। बड़ा मजा आता था छोटपन में ऊपर के बर्थ पर बैठने में। हम सभी चार भाई बहन को पापा ने गाना सिखाया और हमलोग खूब मजे से गाना गाते हुए सो गए। सुबह उठे तो हमारा बड़ा वाला वीआईपी गायब था। उसमें हम सब के नए कपड़े, पापा की विदेश यात्रा से लाए कई सामान जिसमें मुख्य रुप से कैमरा और मां का पांच रुपए का नया गड्डी चला गया। सुबह ही हम सब का मुड खराब हो गया पर पापा मस्त थे।
ट्रेन में सुबह होते ही गर्मी लगने लगी और लोग सभी ने पंखे और सुराही खरीदना शुरु किया। बड़ा मजेदार दृश्य होता था तब जब लोग दिन के वक्त क्या रात के वक्त भी पानी भरा सुराही खरीदते थे और हाथ पंखा। उस समय लोग यह भी नहीं देखते थे कि सुराही का पानी कहां से भरा है बस पानी होना चाहिए औऱ मन को तृप्त करना चाहिए। सुबह होते ही कुछ अंदाज में चाय-पूड़ी-सब्जी की आवाज लगाते वेंडर मेरे कौतूहल के पात्र थे। टाटा-पटना ट्रेन में बैठने का मेरे लिए मुख्य आकर्षण था, आद्रा स्टेशन पर बिकने वाला केक। यहां केक खाकर कुछ देर के लिए मन में बड़ड़पन आ जाता था क्योंकि केक वगैरह तो बड़े लोग ही खाते थे।
तो मैं देख रही हूं बदलता समाज नहीं है, हम ही बदल जाते है। वह समय भी याद है जब ट्रेन के सफर के लिए लोग सबसे खराब कपड़े का एक जोड़ा अलग रखते थे। चेहरा काला काला भी हो जाता था। पर आज ट्रेन के सफर के लिए अलग से कपड़ा नहीं होता। पिछली बार जब मैं राजधानी से लौट रही थी तो नया सूट पहन लिया था क्योंकि अब ट्रेन का स्तर देख कर कपड़ा पहनने रिवाज है। नहीं तो लोग क्या सोचेंगे, का डर समाया रहता है। और चूकि सब जानते हैं कि कोई कुछ भी नहीं सोचेगा। क्योंकि कब किसका स्टेशन आ जाए पता ही नहीं चलेगा।
पुनीता
ट्रेन में बैठे दो बंगाली- आशुन बोशुन- आशुन बोशुन, आशुन बोशुन होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे....
ट्रेन में बैठे दो मद्रासी - इड़ली-दोसा, इडली-दोसा, इडली-दोसा होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे....
पता नहीं यह गीत पापा ने कहा से सीखा हो पर हमें तब पता चला जब मैं पहली बार अपने परिवार के साथ में ट्रेन यात्रा कर रही थी। उस वक्त मैं शायद तीसरी क्लास में होंगी। फिर कभी याद भी नहीं कि हमलोग एक साथ कभी ट्रेन की यात्रा किये भी कि नहीं.
अब मुझे अपनी दो बेटियों के साथ एक ट्रेन की यात्रा करनी है। तो मेरी सबसे पहली शर्त है कि कम से कम एसी की टिकट। नहीं तो मायके जाने के का भी प्रोग्रोम कैंसिल। ऐसे में वह मेरी पहली यात्रा की याद आ रही है। ...
मुझे जो थोड़ा बहुत याद है कि पापा जब अपने एक महीने की विदेश यात्रा से लौटे तो हमलोग अपनी दादी घर पूसा जाने की तैयारी करने लगे। तैयारी करना मतलब मुझे कपड़े तो नहीं समेटने थे पर मेरी तैयारी मतलब, कि मैं देख लूं कि मेरे पेड़ में अमरुद काफी पक चुका है तो और कोई और ना तोड़ ले इसलिए किसी मजबूत आदमी की मदद से पेड़ हिलवाना और बिल्कुल
पके 50-70 अमरुद गिरे और मैं सारे को पैक कर ले जाना। ऐसा कर पाई कि नहीं, ठीक से याद नहीं. रात को मां निकलते वक्त पैर में आलता लगा रही थी। मैंने देखा और मां की नजर बचा कर आलता पर हाथ साफ कर रही थी, तभी पकड़ी गई मां ने देख लिया तो मुझे एक ही पैर में आलता लगाए पूसा तक जाना पड़ा। बस, ये बातें यादों के एलबम में है।
उस वक्त हमलोग दो या तीन ट्रेन का नाम ही जानते थे- टाटा पटना, टाटा मुजफ्परपुर, और सुपरफास्ट। कई लोग तो सात बजे या दस बजे वाली गाड़ी के नाम से भी जानते थे। ट्रेन में बैठने के बाद पापा जी का मस्ती शुरु होता था। और मैं सबसे ऊपर के बर्थ पर जा कर बैठ गई। बड़ा मजा आता था छोटपन में ऊपर के बर्थ पर बैठने में। हम सभी चार भाई बहन को पापा ने गाना सिखाया और हमलोग खूब मजे से गाना गाते हुए सो गए। सुबह उठे तो हमारा बड़ा वाला वीआईपी गायब था। उसमें हम सब के नए कपड़े, पापा की विदेश यात्रा से लाए कई सामान जिसमें मुख्य रुप से कैमरा और मां का पांच रुपए का नया गड्डी चला गया। सुबह ही हम सब का मुड खराब हो गया पर पापा मस्त थे।
ट्रेन में सुबह होते ही गर्मी लगने लगी और लोग सभी ने पंखे और सुराही खरीदना शुरु किया। बड़ा मजेदार दृश्य होता था तब जब लोग दिन के वक्त क्या रात के वक्त भी पानी भरा सुराही खरीदते थे और हाथ पंखा। उस समय लोग यह भी नहीं देखते थे कि सुराही का पानी कहां से भरा है बस पानी होना चाहिए औऱ मन को तृप्त करना चाहिए। सुबह होते ही कुछ अंदाज में चाय-पूड़ी-सब्जी की आवाज लगाते वेंडर मेरे कौतूहल के पात्र थे। टाटा-पटना ट्रेन में बैठने का मेरे लिए मुख्य आकर्षण था, आद्रा स्टेशन पर बिकने वाला केक। यहां केक खाकर कुछ देर के लिए मन में बड़ड़पन आ जाता था क्योंकि केक वगैरह तो बड़े लोग ही खाते थे।
तो मैं देख रही हूं बदलता समाज नहीं है, हम ही बदल जाते है। वह समय भी याद है जब ट्रेन के सफर के लिए लोग सबसे खराब कपड़े का एक जोड़ा अलग रखते थे। चेहरा काला काला भी हो जाता था। पर आज ट्रेन के सफर के लिए अलग से कपड़ा नहीं होता। पिछली बार जब मैं राजधानी से लौट रही थी तो नया सूट पहन लिया था क्योंकि अब ट्रेन का स्तर देख कर कपड़ा पहनने रिवाज है। नहीं तो लोग क्या सोचेंगे, का डर समाया रहता है। और चूकि सब जानते हैं कि कोई कुछ भी नहीं सोचेगा। क्योंकि कब किसका स्टेशन आ जाए पता ही नहीं चलेगा।
पुनीता
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