ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे
ट्रेन में बैठे दो बंगाली- आशुन बोशुन- आशुन बोशुन, आशुन बोशुन होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे....
ट्रेन में बैठे दो मद्रासी - इड़ली-दोसा, इडली-दोसा, इडली-दोसा होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे....
पता नहीं यह गीत पापा ने कहा से सीखा हो पर हमें तब पता चला जब मैं पहली बार अपने परिवार के साथ में ट्रेन यात्रा कर रही थी। उस वक्त मैं शायद तीसरी क्लास में होंगी। फिर कभी याद भी नहीं कि हमलोग एक साथ कभी ट्रेन की यात्रा किये भी कि नहीं.
अब मुझे अपनी दो बेटियों के साथ एक ट्रेन की यात्रा करनी है। तो मेरी सबसे पहली शर्त है कि कम से कम एसी की टिकट। नहीं तो मायके जाने के का भी प्रोग्रोम कैंसिल। ऐसे में वह मेरी पहली यात्रा की याद आ रही है। ...
मुझे जो थोड़ा बहुत याद है कि पापा जब अपने एक महीने की विदेश यात्रा से लौटे तो हमलोग अपनी दादी घर पूसा जाने की तैयारी करने लगे। तैयारी करना मतलब मुझे कपड़े तो नहीं समेटने थे पर मेरी तैयारी मतलब, कि मैं देख लूं कि मेरे पेड़ में अमरुद काफी पक चुका है तो और कोई और ना तोड़ ले इसलिए किसी मजबूत आदमी की मदद से पेड़ हिलवाना और बिल्कुल
पके 50-70 अमरुद गिरे और मैं सारे को पैक कर ले जाना। ऐसा कर पाई कि नहीं, ठीक से याद नहीं. रात को मां निकलते वक्त पैर में आलता लगा रही थी। मैंने देखा और मां की नजर बचा कर आलता पर हाथ साफ कर रही थी, तभी पकड़ी गई मां ने देख लिया तो मुझे एक ही पैर में आलता लगाए पूसा तक जाना पड़ा। बस, ये बातें यादों के एलबम में है।
उस वक्त हमलोग दो या तीन ट्रेन का नाम ही जानते थे- टाटा पटना, टाटा मुजफ्परपुर, और सुपरफास्ट। कई लोग तो सात बजे या दस बजे वाली गाड़ी के नाम से भी जानते थे। ट्रेन में बैठने के बाद पापा जी का मस्ती शुरु होता था। और मैं सबसे ऊपर के बर्थ पर जा कर बैठ गई। बड़ा मजा आता था छोटपन में ऊपर के बर्थ पर बैठने में। हम सभी चार भाई बहन को पापा ने गाना सिखाया और हमलोग खूब मजे से गाना गाते हुए सो गए। सुबह उठे तो हमारा बड़ा वाला वीआईपी गायब था। उसमें हम सब के नए कपड़े, पापा की विदेश यात्रा से लाए कई सामान जिसमें मुख्य रुप से कैमरा और मां का पांच रुपए का नया गड्डी चला गया। सुबह ही हम सब का मुड खराब हो गया पर पापा मस्त थे।
ट्रेन में सुबह होते ही गर्मी लगने लगी और लोग सभी ने पंखे और सुराही खरीदना शुरु किया। बड़ा मजेदार दृश्य होता था तब जब लोग दिन के वक्त क्या रात के वक्त भी पानी भरा सुराही खरीदते थे और हाथ पंखा। उस समय लोग यह भी नहीं देखते थे कि सुराही का पानी कहां से भरा है बस पानी होना चाहिए औऱ मन को तृप्त करना चाहिए। सुबह होते ही कुछ अंदाज में चाय-पूड़ी-सब्जी की आवाज लगाते वेंडर मेरे कौतूहल के पात्र थे। टाटा-पटना ट्रेन में बैठने का मेरे लिए मुख्य आकर्षण था, आद्रा स्टेशन पर बिकने वाला केक। यहां केक खाकर कुछ देर के लिए मन में बड़ड़पन आ जाता था क्योंकि केक वगैरह तो बड़े लोग ही खाते थे।
तो मैं देख रही हूं बदलता समाज नहीं है, हम ही बदल जाते है। वह समय भी याद है जब ट्रेन के सफर के लिए लोग सबसे खराब कपड़े का एक जोड़ा अलग रखते थे। चेहरा काला काला भी हो जाता था। पर आज ट्रेन के सफर के लिए अलग से कपड़ा नहीं होता। पिछली बार जब मैं राजधानी से लौट रही थी तो नया सूट पहन लिया था क्योंकि अब ट्रेन का स्तर देख कर कपड़ा पहनने रिवाज है। नहीं तो लोग क्या सोचेंगे, का डर समाया रहता है। और चूकि सब जानते हैं कि कोई कुछ भी नहीं सोचेगा। क्योंकि कब किसका स्टेशन आ जाए पता ही नहीं चलेगा।
पुनीता
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maja aa gaya perhker.
जवाब देंहटाएंaashish
आपके संस्मरण रोचक लगे. आपके पिताश्री जिंदादिल व्यक्तित्व के हैं. यह भी ठीक लिखा की न जाने कब किसका स्टेशन आ जाए. आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक..."ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे.." काफी समय तक जुबान पर रहेगा...
जवाब देंहटाएंaapke is rochak sansmaran ne hame bhi aanandit kiya..aabhaar.
जवाब देंहटाएंपुराने दिनों में लौटा दिया आपने...ट्रेन में बैठे बहुत अरसा हो गया...
जवाब देंहटाएंनीरज
बहुत रोचक संस्मरण..यादों में बसती वो यादें!!
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया यादेँ रहीँ आपकी ..
जवाब देंहटाएंपढकर मज़ा आ गया :)
- लावण्या