बुधवार, 3 जून 2009

इसके सीने से लगो, तो इसकी धड़कन

मैं गर्मी की छुट्टी में अपने बच्चों के साथ अपने शहर जमशेदपुर का मजा ले रही हूं। हर व्यक्ति का अपना शहर वही होता जहां वह अपना बचपन बिताया होता है औऱ सारे जगह तो बिल्कुल अस्थायी। अपने जमीन से दूर होने का दर्द हर वक्त झेलती हूं।
यहां आयी हूं और हर पल अपने बचपन को ढुंढती हूं। हर वक्त हर जगह घर के हर सामानों में यादें छुपी हुई है। मैने कभी कहीं पढ़ा था कि घर बड़ा चुपचाप पड़ा होता है पर जब उसके सामानों से बतियाओ तो वह भी तुम से बातें करेगा। और यह बिल्कुल सच हो रहा है मेरे साथ। घर से अगर शुरु करुं तो घर का वह सामान जो कम से कम पच्चीस साल पुराना है मुझे बहुत आकर्षित करता है औऱ जो आज भी काम में है। बरषों पुराने बर्तन से ज्यादा लगाव हो जाता है मन करता है कोई थाली अपने साथ ले जाऊं। यादों को थामना और सुखद अनुभव करना बिल्कुल अलग ख्याल है। कटोरी जिसमें कभी हमलोग दूध रोटी खाया करते थे वह यूं ही इस्तमाल में देखकर आज भी मैं दूध रोटी खाने का मन बना बैठती हूं। घर के नये सामान से कोई लगाव नहीं है मेरा, और बल्कि वह सामान जो पिछले दस सालों से घर पर है उस ओर मैं देखती भी नहीं हूं। हर वक्त तलाश रहता है कोई पुराना सा सामान को छू कर अनुभव करने का। बाथरुम में स्टील का लोटा पुराने दिनों को बरबस याद दिला जाता है। छोटा सा स्टील का बाल्टी वह भी पच्चीस साल पुराना होगा जो गाय के दूध के लिए विशेष रुप से खरीदा गया था। एक वक्त में दो किलो दूध देती गाय के लिए बाल्टी बहुत सुंदर था। आज भी सुंदर है बस स्थानांतरित हो गया है उसमें किचन का कूड़ा डाला जाता है। परदा का कपड़ा जो कि साल दर साल इस्तेमाल के बाद भी जस का तस है। घर मैं इसलिए भी आना चाहती हूं क्योंकि अगर मां-पापा से मिल भी लूं तो भी एक कमी सी बनी रहती है। घर के दिवारों को महसूस करने की कमी। वह सुगंध मैं धूल लगे किताबों में ढुंढती हूं।
मेरा छोटा सा कोसमोपोलिटन शहर सदाबहार दिखता है। बारिश हो जाने की वजह से शहर हरा भरा हो गया है। स्निग्ध स्नान किया हुआ मेरा शहर धुला पोछा हुआ दिखता है। जिधर से भी गुजर जाऐ अतिव्यवस्थित। मानो आधुनिक विश्वकर्मा (मजदूरों की इस नगरी को) ने इसे अपने हाथों से गढ़ा हो। इस शहर कि यही खासियत भी है कि यहां सभी तबके के लोग मिल जाऐंगे और सभी जाति के भी।
हवा को छुने का मन करता है पर शहर बदला बदला सा दिखता है। लोगों के चेहरे में किसी जानकार को ढुंढती हूं कि कहीं कोई मिल जाए। पर कोई नहीं मिलता। अपना शहर बेगाना हो गया है। जिस उमंग और उत्साह से एक एक स्टेशन को पार करते हुए जों ही करीब आती हूं दिल धड़कने लगता है औऱ ऐसा सोचती हूं कि कोई भी जाना पहचाना व्यक्ति मुझे स्टेशन में ही जरुर मिल जाएगा। पर आज तक मुझे स्टेशन में कोई नहीं मिला। फिर भी ढुंढती हूं निरंतर। घर से निकल कर मेरा समय लोगों को गौर से देखने में ही निकल जाता है मैं रोड़ भी क्रोस करती रहूं तो भी मेरे मन में किसी परिचित से भी अनजाने में ही मिलने की चाहत लगी रहती है।
अपनी दोस्त को ढुंढने मैं निकल पड़ी वह नहीं मिली। उसके पुराने घर (टाटा स्टील के क्वाटॆर) पर गई पर नये वाले ने कह दिया कि उसे नहीं पता कि वे लोग कहां चले गए। मैं जानती हूं वह यहीं है पर मैं उस तक नहीं पहुंच पाती हूं। मन और उदास हो गया, जब उसके बगल वाले ने बड़े ही ऱुखे स्वर में जवाब दिया कि हमलोग नहीं जानते कि वे लोग कहां चले गए हैं। पता नहीं वह समझ नहीं सकते थे कि मैं किन परिस्थितियों में उन तक पहुंची हूं।

उसे ढुंढने निकल पडी थी वह भी अपने पापा के साथ और वह मुझे नहीं मिली। मेरे पापा मुझे ले गए यह बहुत ही आश्चर्यजनक बात थी। मेरी गलती है मैने रिश्ता बिल्कुल ही खत्म कर दिया था पिछले दो साल पहले हम मिले थे। पर बचपन की सहेली जो कभी नहीं बदल सकती उसे ढुंढना चाहती हूं। मेरी इसी तरह सारी सहेलियां चली गई। गिन चुन कर पांच हम दोस्त थे। जिसमें दो तो विदेश में है औऱ एक को शहर में ढुंढ रही हूं और एक बंगाल में है। लंदन चली गई दोनो सहेलियों के बारे में भी मुझे बहुत कुछ जानना है। पिछले साल भर से बात नहीं हुई है। वह ही मुझे फोन किया करती थी और मरे पास अब उसका नंबर भी नहीं है। उम्मीद से थी पर उम्मीद में क्या मिला उसे यह मैं जानना चाहती हूं। उसके पापा के पास जाऊंगी। शायद वह कुछ पता चले।
शहर के पचास साल पूरे होने पर यहां बना जुबिली पार्क। यहां टाटा नगर के संस्थापक जमशेद जी नसरवान जी टाटा की आदमकद प्रतिमा के सामने खड़ी हूं। उनकी प्रतिमा के ठीक नीचे उनकी एक पंक्ति लिखी हुई है, अगर मुझे देखना है, तो देखो मेरे चारों ओर। सचमुच, मजदूरों की इस नगरी में आधुनिक और लघु भारत का दिल धड़कता है। इसके सीने से लगो, तो इसकी धड़कन सुनाई पड़ती है।

8 टिप्‍पणियां:

  1. kamal ka likha hai. Tata jee ka darshan bhi anukarneye hai. bahut acha.

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  2. पुनीता जी,

    एक संवेदनशील इन्सान ही इतनी सिद्दत से पुरानी यादों संजोकर रखता है और उसे समय समय पर याद भी करता है। सुन्दर प्रस्तुति।

    एक बात और क्या आज कल में आप अपने पुराने घर पर भी गयीं थीं? क्या आपका पुराना घर 74L6 Tube Baridih था?

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  3. अपने शहर का नाम देख इतना अपनापन लगा कि बरबस ही आपके ब्लॉग पर चली आई....

    आपके आलेख का हर शब्द और मनोभाव अपना सा लगा...
    ईश्वर करें,आपका संपर्क अपनी सहेलियों से हो जाय...

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  4. ajee un dino kee yaad to anmol hotee hain so aapkee bhee hain...jamshedpur main bhee ja chuka hoon..sundar jagah hai......

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  5. भाव और शिल्प की दृष्टि से आपकी अभिव्यक्ति बड़ी प्रखर है । सीधे सरल शब्दों का प्रयोग सहज ही प्रभावित करता है । वैचारिकता को प्रेरित करती आपकी रचना अच्छी लगी ।

    मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-फेल होने पर खत्म नहीं हो जाती जिंदगी-समय हो पढें और कमेंट भी दें-

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

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  6. Puniya ur MOTA BHAI (BOBBY)here... Went through ur this latest mail "Isko Seene Se..." really touching. Tumne mujhe toa such mei emotional kar diya. 'Coz, u can recall the craze of Jamshedpur for me...,Woh Parda, Woh Balti, Woh Katori mai bhi imagine kar sakta hoon aaj bhi.. Please keep writing with such feelings... Meri Shubhkamnaayen Saath hain...

    May 26, 2009 9:42 AM

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  7. aksar aisa hi hota hai jab ghar se door jakar phir ek baar ghar ko aane par

    khaskar striyon ke sath jyada hi hota hoga

    jab hum ladke log 3-4 month baad ghar jate hain to hume bhi aisa mehsoos hota hai

    ek bahut achchhi post

    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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  8. यादों का चित्रण बहुत भावपूर्ण ढंग से किया है आपने...आप कुशल लेखिका हैं...पुराने मित्रों और वस्तुओं का आकर्षण बहुत ज़बरदस्त होता है..
    नीरज

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