शनिवार, 6 जून 2009

भगवान याद आ रहें हैं।

भगवान याद आ रहें हैं।
मुझे लोग नास्तिक समझते हैं तो मुझे अच्छा भी लगता है और बुरा भी। अच्छा
इसलिए ताकि कोई मुझे पूजा-पाठ करने या कोई व्रत करने को ना कह दे। और
बुरा इसलिए कि मैं ईश्वर को दिल से महसूस करती हूं सिर्फ पोंगा पंडिती
नहीं कर सकती। ब्राह्मण औऱ ऊपर से औरत होने के नाते समाज मुझसे शाकाहारी
होने की उम्मीद भी रखता हैं। पर मैं ठहरी नास्तिक। पंजाब, हरियाणा यहां
तक की दिल्ली में भी जब कोई अपने भौं चढाकर या घृणित सा चेहरा बना कर
पूछता क्या आप नोनवेज खाती हैं तो मुझे बड़ा अजीब लगता है।

मुझे लगता है कि यह (अव) गुण मेरे पापा से मुझे मिला है, जो हर चीज को
पहले विग्यान से परखते की बात करते हैं. साथ ही किसी से कोई भी चीज पाकर,
देकर, किसी से मिलकर भगवत कृपा की बात करते है तो मुझे आश्चर्य होता है।
मैं भी भगवान को मानती हूं और उनकी कृपा को भी।
मेरी सासुमां अपनी काकी (चाची) से मिलवाने मुझे ले गई। चूंकि काकी मेरे
घर पानीपत में आई थी इसलिए मुझे उनसे कुछ खास लगाव हो गया था उनहे देखने
का मन कर रहा था। मैं पहली बार उनके घर गई थी एक सुंदर सी बहु दिखी वह
अपनी बहन को बुलवा कर उनकी सेवा में लगी थी और हमलोग को भी पूरा समय दे
पा रही थी। काकी की मानसिक स्थिति खराब हो गई है। वह रोजाना एक ही बात की
रट लगाती रही है। मैं उनको देखकर बिल्कुल घबड़ा सी गई। नाना जी (काकी के
पति) भी थोडी देर हमारे साथ खड़े रहे।
मैं खुद को उनके जगह रख कर देख रही थी कि मेरी भी यह स्थिति हो सकती है।
मेरे पति भी जो आज मुझे संकटमोचक दिखते हैं कभी बिल्कुल बेसहारा हो जाए
औऱ मैं जीते जी उनको पहचान नहीं पाऊ। अपने बच्चों को ना पहचानू। कितनी
दुखद स्थिति होगी। सोच ही अकल्पनिय है।
फिर दूसरी जगह मैं गई थी, जहां परिवार सामुहिक रुप मे रहता है और उसमें
से एक बच्चा मानसिक रुप से बीमार है। वह भी दुखद स्थिति थी। मैं बहुत
परेशान हो जाती हूं जब भी यह सब देखती हूं। उसकी मां उस बच्चे को संभालने
में दिन भर लगी रहती है। मैंने महसूस किया मैं अपनी एक साल की बेटी की
चंचलता से परेशान हो उठती हूं तो वह अपने सोलह साल के लड़के से परेशान हो
जाती है। और परिवार के सारे बच्चे स्वस्थ है तो उस मां को कैसा लगता होगा
जो अपनी बात बोल भी नहीं पाता है और शरीर से बड़ा होता चला जा रहा है।
कल मुझे एक और स्थिति का सामना करना है मेरी गायनोक्लोजिस्ट आंटी को
कैंसर हो गया है। वह कभी हमारी पड़ोस में रहती थी. जब वह हमारे शहर में
पहली बार आयी थी तो उनके बगल वाले फ्लैट में रहने के नाते हम ही उनके
पहले पडोसी थे । वह देखने में बिल्कुल हेमामालिनी की तरह दिखती है. उनके
पति डरमोटलोजिस्ट हैं। बहुत प्यारी सी आंटी हमें पढ़ने को बहुत उत्साहित
करती थी। अब वह किसी से मिलती नहीं है देखें कल मुझसे मिलेगी कि नहीं।
उनके बारे में सुनकर मैं बेचैन हो गई। मैं सोचने पर मजबूर हो गई कि लोग
क्यों घर, गाड़ी, बैंक बैलेंस के पीछे पडे रहते हैं जब कभी भी किसी का भी
भगवान की तरफ से कोई गारंटी नहीं है।

लोग अगर इसे कर्म का फल कहते हैं तो यह कर्म भी हमसे हमारा भगवान ही
करवाता है यानि हम सिर्फ कठपुतली है। इस शरीर से जितना हमलोग प्यार करते
हैं उतना ही यह कष्ट देने में माहिर है और कोई भी कभी भी किसी भी स्थिति
में आ सकता है। स्वस्थ शरीर रोगी हो सकता है, अमीर रातों रात गरीब बन
जाता है यह सब उसी परमेश्वर की कृपा है।

मैंने कुछ भी नया नहीं लिखा है। हर आदमी यह सब जानता है पर फिर भी अपने
को नस्वर समझने की भूल करता है। उसे लगता है कि कोई दूह चीज मेरे साथ
घटित नहीं हो सकता। पर जब कभी भी सोचने को बैठता है तो वह घबड़ा जाता है
कि मौत के बाद क्या ? फिर भगवान याद आते है।
आज मैं भी वहीं खड़ी हूं मौत के बाद क्या ? और मुझे तो भगवान याद आ रहें हैं।

बुधवार, 3 जून 2009

इसके सीने से लगो, तो इसकी धड़कन

मैं गर्मी की छुट्टी में अपने बच्चों के साथ अपने शहर जमशेदपुर का मजा ले रही हूं। हर व्यक्ति का अपना शहर वही होता जहां वह अपना बचपन बिताया होता है औऱ सारे जगह तो बिल्कुल अस्थायी। अपने जमीन से दूर होने का दर्द हर वक्त झेलती हूं।
यहां आयी हूं और हर पल अपने बचपन को ढुंढती हूं। हर वक्त हर जगह घर के हर सामानों में यादें छुपी हुई है। मैने कभी कहीं पढ़ा था कि घर बड़ा चुपचाप पड़ा होता है पर जब उसके सामानों से बतियाओ तो वह भी तुम से बातें करेगा। और यह बिल्कुल सच हो रहा है मेरे साथ। घर से अगर शुरु करुं तो घर का वह सामान जो कम से कम पच्चीस साल पुराना है मुझे बहुत आकर्षित करता है औऱ जो आज भी काम में है। बरषों पुराने बर्तन से ज्यादा लगाव हो जाता है मन करता है कोई थाली अपने साथ ले जाऊं। यादों को थामना और सुखद अनुभव करना बिल्कुल अलग ख्याल है। कटोरी जिसमें कभी हमलोग दूध रोटी खाया करते थे वह यूं ही इस्तमाल में देखकर आज भी मैं दूध रोटी खाने का मन बना बैठती हूं। घर के नये सामान से कोई लगाव नहीं है मेरा, और बल्कि वह सामान जो पिछले दस सालों से घर पर है उस ओर मैं देखती भी नहीं हूं। हर वक्त तलाश रहता है कोई पुराना सा सामान को छू कर अनुभव करने का। बाथरुम में स्टील का लोटा पुराने दिनों को बरबस याद दिला जाता है। छोटा सा स्टील का बाल्टी वह भी पच्चीस साल पुराना होगा जो गाय के दूध के लिए विशेष रुप से खरीदा गया था। एक वक्त में दो किलो दूध देती गाय के लिए बाल्टी बहुत सुंदर था। आज भी सुंदर है बस स्थानांतरित हो गया है उसमें किचन का कूड़ा डाला जाता है। परदा का कपड़ा जो कि साल दर साल इस्तेमाल के बाद भी जस का तस है। घर मैं इसलिए भी आना चाहती हूं क्योंकि अगर मां-पापा से मिल भी लूं तो भी एक कमी सी बनी रहती है। घर के दिवारों को महसूस करने की कमी। वह सुगंध मैं धूल लगे किताबों में ढुंढती हूं।
मेरा छोटा सा कोसमोपोलिटन शहर सदाबहार दिखता है। बारिश हो जाने की वजह से शहर हरा भरा हो गया है। स्निग्ध स्नान किया हुआ मेरा शहर धुला पोछा हुआ दिखता है। जिधर से भी गुजर जाऐ अतिव्यवस्थित। मानो आधुनिक विश्वकर्मा (मजदूरों की इस नगरी को) ने इसे अपने हाथों से गढ़ा हो। इस शहर कि यही खासियत भी है कि यहां सभी तबके के लोग मिल जाऐंगे और सभी जाति के भी।
हवा को छुने का मन करता है पर शहर बदला बदला सा दिखता है। लोगों के चेहरे में किसी जानकार को ढुंढती हूं कि कहीं कोई मिल जाए। पर कोई नहीं मिलता। अपना शहर बेगाना हो गया है। जिस उमंग और उत्साह से एक एक स्टेशन को पार करते हुए जों ही करीब आती हूं दिल धड़कने लगता है औऱ ऐसा सोचती हूं कि कोई भी जाना पहचाना व्यक्ति मुझे स्टेशन में ही जरुर मिल जाएगा। पर आज तक मुझे स्टेशन में कोई नहीं मिला। फिर भी ढुंढती हूं निरंतर। घर से निकल कर मेरा समय लोगों को गौर से देखने में ही निकल जाता है मैं रोड़ भी क्रोस करती रहूं तो भी मेरे मन में किसी परिचित से भी अनजाने में ही मिलने की चाहत लगी रहती है।
अपनी दोस्त को ढुंढने मैं निकल पड़ी वह नहीं मिली। उसके पुराने घर (टाटा स्टील के क्वाटॆर) पर गई पर नये वाले ने कह दिया कि उसे नहीं पता कि वे लोग कहां चले गए। मैं जानती हूं वह यहीं है पर मैं उस तक नहीं पहुंच पाती हूं। मन और उदास हो गया, जब उसके बगल वाले ने बड़े ही ऱुखे स्वर में जवाब दिया कि हमलोग नहीं जानते कि वे लोग कहां चले गए हैं। पता नहीं वह समझ नहीं सकते थे कि मैं किन परिस्थितियों में उन तक पहुंची हूं।

उसे ढुंढने निकल पडी थी वह भी अपने पापा के साथ और वह मुझे नहीं मिली। मेरे पापा मुझे ले गए यह बहुत ही आश्चर्यजनक बात थी। मेरी गलती है मैने रिश्ता बिल्कुल ही खत्म कर दिया था पिछले दो साल पहले हम मिले थे। पर बचपन की सहेली जो कभी नहीं बदल सकती उसे ढुंढना चाहती हूं। मेरी इसी तरह सारी सहेलियां चली गई। गिन चुन कर पांच हम दोस्त थे। जिसमें दो तो विदेश में है औऱ एक को शहर में ढुंढ रही हूं और एक बंगाल में है। लंदन चली गई दोनो सहेलियों के बारे में भी मुझे बहुत कुछ जानना है। पिछले साल भर से बात नहीं हुई है। वह ही मुझे फोन किया करती थी और मरे पास अब उसका नंबर भी नहीं है। उम्मीद से थी पर उम्मीद में क्या मिला उसे यह मैं जानना चाहती हूं। उसके पापा के पास जाऊंगी। शायद वह कुछ पता चले।
शहर के पचास साल पूरे होने पर यहां बना जुबिली पार्क। यहां टाटा नगर के संस्थापक जमशेद जी नसरवान जी टाटा की आदमकद प्रतिमा के सामने खड़ी हूं। उनकी प्रतिमा के ठीक नीचे उनकी एक पंक्ति लिखी हुई है, अगर मुझे देखना है, तो देखो मेरे चारों ओर। सचमुच, मजदूरों की इस नगरी में आधुनिक और लघु भारत का दिल धड़कता है। इसके सीने से लगो, तो इसकी धड़कन सुनाई पड़ती है।

मंगलवार, 26 मई 2009

वट सावित्री की पूजा


आज वट सावित्री की पूजा थी। उत्तर बिहार के मिथिला और कोशी अंचल का प्रसिद्ध वट वृक्ष पूजा यानी वट सावित्री पूजा पूरे देश में मनाया गया। भारत के कुछ हिस्सों में बरगद पेड़ की पूजा होती है। बड़ा ही मजेदार पूजा होती है। बरगद की पूजा महिलाऐं अधिकतर करती है। इस दौरान पेड़ में जल डाला जाता है, दीया -बत्ती दिखाकर फूल चढाया जाता है। पेड़ के चारों तरफ अल्पना भी बनाते है। पूजा खत्म होने के बाद पेड़ की परिक्रमा की जाती है। पेड़ को धागे से लपेटा जाता है चंदन सिंदूर का लेप लगाया जाता है। औऱ सब से अंत में पेड़ से गले मिल कर उसके तने को दबाया भी जाता है।

मैं पूजा में विश्वास नहीं करती हूं और चूकि मायके में हूं तो सब का कहना मानना जरुरी भी है। और कल जब मैं दीदी को पूजा की अनिच्छा दिखाई तो उसने बड़ा सही कहा कि हमलोग को ही विरासत में अपने संस्कार कम मिला है और अगर हम यह भी नहीं करे तो आने वाले पीढी को क्या देंगे। मुझे यह बात जच गई और मैं सुबह नहा धोकर वट की पूजा करने पहुंच गई। चूकि फ्लैट में रहने और शरीर में आलस भरा होने के कारण हमलोग वट पेड के पास ना जाकर छत पर ही रखे गमले में लगे वट के डाल से पूजा कर लिये। पूजा भली भांती संपन्न हो गया जिसमें हर औरत पांच पत्तों को सजाकर प्रसाद चढाई औऱ एक पत्ते अपने सर के जूडे में खोस ली। सुंदर अति सुंदर लगा पत्ते को जूडे पर लगाना।

मुझे याद है मैं जब छोटी थी तो मां यह पूजा समुह में कर घर लोटती थी तो मां के नाक से लगे सिर तक में सिंदूर लगा होता था। और प्रसाद के रुप में पहली बार आम के सीजन में आम चखने को हमें मिलता था। औऱ उसके बाद से आम बाजार में आ जाता था।

आज समाज का विभत्स रुप देखने को मिलता है। महिलायें पेड़ के पास ना जाकर पेड़ को घर बुला लेती है। पूजा की कथा में लिखा है कि अगर वट पेड़ ना मिले तो टहनी भी चलेगी या फिर दिवार पर बनाया हुआ बरगद का चित्र से भी काम चल सकता है। पर जो हो टहनी से पूजा करना मुझे रास नहीं आया। और पत्तो को तोड़ना मेरे लिए नागवार है। हम हर वक्त विकास की बात करते है और बरगद का टहनी भी विकास का ही सूचक है पर सारा पूजा पाठ तब यूं ही बेकार हो जाता है जब ब्राहमणो द्वारा बनाया गया नियम सिर्फ यजमान को सुविधा प्रदान करता है. अगर यजमान पेड़ के पास ना जा सके तो पेड को घर ले आना कहीं से भी प्रगतिशिलता नहीं माना जाना चाहिए। पर्यावरण के साथ यूं खेल सिर्फ यजमान को सुविधा देने के लिए यह कहीं से ठीक नहीं है। और यूं ही अगर अभी भी हम यह नहीं चेते तो वह दिन भी आ जाएगा जब बरगद का चित्र दिवार पर या कपड़े पर बनाकर हमें उसकी पूजा करनी होगी।

बरगद सूचक है हमारे समाज में मजबूती का। मतलब जो मजबूत है आदरणीय है। कमजोर की पूजा नहीं होती। संस्कार में हमें यह तो नहीं बताया गया था कि पेड़ की टहनी को ही घर ले आओ। पर हम बदल रहे है हर कुछ अपने सुविधानुसार करने की कोशिश में हम पेड़ को बुरी तरह नुकसान पहु्चा रहें है। है। हम लोग भटके हुए है। पेड़ का नुकसाम कर हम खुद का नुकसान कर रहें है। औऱ सोचते हैं कि हम अपनी संसकती को बचाये हुए है। पेड से अपनत्व का संबध बनाना आज बहुत मुश्किल होता जा रहा है। समय की कमी औऱ ढेरों काम के बोझ तले दबे होने के कारण हम स्वार्थी होते जा रहें है कि हमें खुद प्रक़ती से खेलने में मजा आता है और खुद को संस्क़ती से जुड़े होने का ढोंग करने में मजा आता है।

बरदग के पूजा की सोच बहुत ही दिलचस्प रही होगी । जिस तरह प्रक़ती में पेड़ के बिना काम नहीं चल सकता ठीक उसी तरह घर में पति के बिना काम नहीं चल सकता। दोनो को खुश रखना औऱ प्यार, सम्मान देना जरुरी है। तो पूजा में बरगद को चढाया हुआ जल लाकर पति के पांव धोये जाते हैं उसे मिठाई और प्रसाद दी जाती है। इस पूजा की सोच बहुत अच्छी है उस वक्त पति से प्यार का इजहार भी अनोखा था। पेड़ को मजबूत औऱ रच्छक के रुप में देखा जाता था और पति भी उसा का पर्याय होता था। पर इजहार सीधा ना कर के दोनो को एक सुत्र में बांधा जाता था। यह एक मूक इजहार था पति औऱ पत्नी के बीच के संबध को प्रगाढ़ करने का जहां दुनियां का कोई भी आरचीज का कार्ड डिजाइनर इस प्यार को आलेखित नहीं कर सकता।

गुरुवार, 21 मई 2009

हम और मैं के बीच का फासला

दो शब्द हम और मैं- अर्थ एक। यह दो शब्द सभी कोई अपने को अभिव्यक्त करने के लिए अक्सर करते हैं. व्याकरण की बात ना करें तो खुद को अभिव्यक्त करने के लिए मैं बचपन से पिछले दो साल तक हम शब्द का प्रयोग ही करती थी। औऱ मुझे यह अच्छा लगता था। कोई अगर मैं कहता तो मुझे लगता यह क्यों मैं मिया रहा है। प्राय ऐसा होता कि लोग जब अपने शहर को छोड़ दूसरे शहर से आते तो मैं मियाते दिखते।
कई बार लोगों से बहस हो जाती है, हम औऱ मैं शब्दों के बीच। प्रायः सभी हम शब्द से प्यार करते थे पर दूसरे शहर की आवोहवा के अनुसार ढलने के लिए अपने को मौडरेट करते हुए मैं पर उतर आते है। और फिर वही अच्छा लगने लगता। बहस के दौरान बात उठती कि हम शब्द से हम अपने को पूरी तरह अभिव्यक्त तो कर पाते ही है और साथ साथ ऐसा भी लगता है कि मेरे साथ और भी कोई खड़ा है मेरे तरफ से। हम शब्द से एक समुह का आभास होता है जो साथ साथ है मेरे पर मैं बहुत एकाकी है। बिल्कुल अकेला। पर मजबूत। सख्त स्तंभ की तरह। कोई हिला डुला नहीं सकता।
यह भी एक फर्क है ऐसा मैं मानती हूं एक शाकाहारी और मांसाहारी व्यक्ति की सोच जैसा। जिस तरह मांस खाने से बुद्धि की गती दूसरी होती है और नहीं खाने से दूसरी। जिस तरह खानपान हमारे व्यक्तित्व को दिखाता है ठीक वैसे ही यह दो शब्द से मैं अपने आप को पहचान ने की कोशिश करती हूं। मैं करीब पिछले नौ साल से अपने छोटे से शहर को छोड़ दूसरे राज्यों में घूमती रही हूं और पिछले चार साल से दिल्ली में रह रही हूं। तो पिछले दो साल में कब मेरे अंदर यह मैं घुस गया यह मुझे खुद पता ही नहीं चला।
अब मुझे मैं बोलना अच्छा लगता है इस से मुझ में आत्मविश्वास की भावना पैदा होती है अपनी बात को जब मजबूती से रखना हो तो मैं खुद को मैं शब्द से ही अभिव्यक्त करना पसंद करती हूं। मैं शब्द में स्पष्टता दिखती है और स्वार्थी होने का गुण भी झलकता है। स्वार्थी व्यक्ति जैसे सिर्फ खुद के विषय में सोचता है वैसे ही मैं मतलब सिर्फ मैं और कोई नहीं अंदर बाहर कोई नहीं अकेला निर्विकार खड़ा व्यक्ति।
तो बात यहां से उठी कि मैं अपने शहर जमशेदपुर आयी हुई हूं और मेरी आठ साल की बेटी श्रुति ने मुझ से यह कह दिया है कि मैं यहां आकर यहां कि भाषा में ही बोलूंगी मतलब वह खुद को हम कह कर पुकारती है। और उसके हम शब्द के उच्चारण में सारे अपनत्व के साथ साथ पूरा आत्मविश्वास भी दिखता है। बहुत मजबूती से वह खुद को अभिव्यक्त करने के लिए हम का उच्चारण करती है।

गुरुवार, 14 मई 2009

ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे

ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे
ट्रेन में बैठे दो बंगाली- आशुन बोशुन- आशुन बोशुन, आशुन बोशुन होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे....
ट्रेन में बैठे दो मद्रासी - इड़ली-दोसा, इडली-दोसा, इडली-दोसा होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे....
पता नहीं यह गीत पापा ने कहा से सीखा हो पर हमें तब पता चला जब मैं पहली बार अपने परिवार के साथ में ट्रेन यात्रा कर रही थी। उस वक्त मैं शायद तीसरी क्लास में होंगी। फिर कभी याद भी नहीं कि हमलोग एक साथ कभी ट्रेन की यात्रा किये भी कि नहीं.
अब मुझे अपनी दो बेटियों के साथ एक ट्रेन की यात्रा करनी है। तो मेरी सबसे पहली शर्त है कि कम से कम एसी की टिकट। नहीं तो मायके जाने के का भी प्रोग्रोम कैंसिल। ऐसे में वह मेरी पहली यात्रा की याद आ रही है। ...
मुझे जो थोड़ा बहुत याद है कि पापा जब अपने एक महीने की विदेश यात्रा से लौटे तो हमलोग अपनी दादी घर पूसा जाने की तैयारी करने लगे। तैयारी करना मतलब मुझे कपड़े तो नहीं समेटने थे पर मेरी तैयारी मतलब, कि मैं देख लूं कि मेरे पेड़ में अमरुद काफी पक चुका है तो और कोई और ना तोड़ ले इसलिए किसी मजबूत आदमी की मदद से पेड़ हिलवाना और बिल्कुल
पके 50-70 अमरुद गिरे और मैं सारे को पैक कर ले जाना। ऐसा कर पाई कि नहीं, ठीक से याद नहीं. रात को मां निकलते वक्त पैर में आलता लगा रही थी। मैंने देखा और मां की नजर बचा कर आलता पर हाथ साफ कर रही थी, तभी पकड़ी गई मां ने देख लिया तो मुझे एक ही पैर में आलता लगाए पूसा तक जाना पड़ा। बस, ये बातें यादों के एलबम में है।
उस वक्त हमलोग दो या तीन ट्रेन का नाम ही जानते थे- टाटा पटना, टाटा मुजफ्परपुर, और सुपरफास्ट। कई लोग तो सात बजे या दस बजे वाली गाड़ी के नाम से भी जानते थे। ट्रेन में बैठने के बाद पापा जी का मस्ती शुरु होता था। और मैं सबसे ऊपर के बर्थ पर जा कर बैठ गई। बड़ा मजा आता था छोटपन में ऊपर के बर्थ पर बैठने में। हम सभी चार भाई बहन को पापा ने गाना सिखाया और हमलोग खूब मजे से गाना गाते हुए सो गए। सुबह उठे तो हमारा बड़ा वाला वीआईपी गायब था। उसमें हम सब के नए कपड़े, पापा की विदेश यात्रा से लाए कई सामान जिसमें मुख्य रुप से कैमरा और मां का पांच रुपए का नया गड्डी चला गया। सुबह ही हम सब का मुड खराब हो गया पर पापा मस्त थे।
ट्रेन में सुबह होते ही गर्मी लगने लगी और लोग सभी ने पंखे और सुराही खरीदना शुरु किया। बड़ा मजेदार दृश्य होता था तब जब लोग दिन के वक्त क्या रात के वक्त भी पानी भरा सुराही खरीदते थे और हाथ पंखा। उस समय लोग यह भी नहीं देखते थे कि सुराही का पानी कहां से भरा है बस पानी होना चाहिए औऱ मन को तृप्त करना चाहिए। सुबह होते ही कुछ अंदाज में चाय-पूड़ी-सब्जी की आवाज लगाते वेंडर मेरे कौतूहल के पात्र थे। टाटा-पटना ट्रेन में बैठने का मेरे लिए मुख्य आकर्षण था, आद्रा स्टेशन पर बिकने वाला केक। यहां केक खाकर कुछ देर के लिए मन में बड़ड़पन आ जाता था क्योंकि केक वगैरह तो बड़े लोग ही खाते थे।
तो मैं देख रही हूं बदलता समाज नहीं है, हम ही बदल जाते है। वह समय भी याद है जब ट्रेन के सफर के लिए लोग सबसे खराब कपड़े का एक जोड़ा अलग रखते थे। चेहरा काला काला भी हो जाता था। पर आज ट्रेन के सफर के लिए अलग से कपड़ा नहीं होता। पिछली बार जब मैं राजधानी से लौट रही थी तो नया सूट पहन लिया था क्योंकि अब ट्रेन का स्तर देख कर कपड़ा पहनने रिवाज है। नहीं तो लोग क्या सोचेंगे, का डर समाया रहता है। और चूकि सब जानते हैं कि कोई कुछ भी नहीं सोचेगा। क्योंकि कब किसका स्टेशन आ जाए पता ही नहीं चलेगा।

पुनीता

बुधवार, 6 मई 2009

आज वर्ल्ड नो डाइट डे है

आज वर्ल्ड नो डाइट डे है

यह वाक्य पढ़ कर हम भारतीय के चेहरों पर अजीब सी हंसी बिखर जाती है। भारत की जनता यह डे रोज ही मनाने की आदि है। और भारत जैसे देशों के लिए यह दिन मनाना गैर जरुरी है ऐसा हम सभी मानते है।

-जब जीरो दिया मेरे भारत ने- गीत की यह पंक्ति आज भी मुझे उतना ही रोमांचित करती है जितना मेरे बचपन में मुझे किया करती थी क्योंकि बचपन में ही आप देश भक्ति की भावना को महसूस कर सकते हैं बाद में तो हम सरकार
की नाकामियां गिनाने और अपने देश पर शर्मिन्दा होना सीख जाते हैं.

हां तो यह पंक्ति मुझे इसलिए याद आई क्योंकि हमारा देश चाहे गरीब रहा हो पर समृद्ध घरों में भी उपवास का बहुत महत्व था और आज भी है। लोग मजाक में कहते हैं कि भारत में तो 365 दिन पर्व ही मनाया जाता है तो मैं अब सोच
रही हूं कि हमारे पूर्वज पहले से ही इतने भविष्यवक्ता थे कि वह गरीब और धनवानों के लिए अलग अलग कायदे कानून बना रखे थे। वे जानते थे कि गरीब व्यक्ति को चूकि रोटी पाने के लिए हाड़ तोड़ कोशिश करनी पड़ेगी सो उन्हें उपवास की महता बताने की जरुरत नहीं थी। पर कुछ प्रतिशत खाते पीते लोग जो ज्यादा ही खा लेते हैं भोजन की सुगम उपलब्धता के कारण तो उनके लिए और उसमें खास कर उन घरों की महिलाओं के लिए जो घर पर ही रहती थी, उनके लिए उपवास नियम बनाया गया। चूकि समृद्ध लोग नियम माने इसलिए उनलोगों ने हम महिलाओं से इमोशनल अत्याचार भी किया। पति के नाम पर, बच्चों के नाम पर और सूर्य के नाम पर कठिन व्रत का नियम बना दिया।

संसार, जिसमें कई देश अफरात अमीर है तो कई देश गरीब अपने अपने सुविधा के अनुसार यह डे मना सकते हैं। भूखों को मनाने की जरुरत नहीं और समृद्ध मनाने से रहे। मेरे बडे चाचा जो पेशे से सरकारी डॉक्टर हैं वह हर रविवार को अपने घर की
सारी घडि़यां बंद रखते है। शायद वह जानते हैं कि शरीर को जैसे आराम की जरुरत होती है वैसे ही मशीन को भी होती होगी। यह उनकी सोच है, पर हम भारतिय जब हमारी रोजमर्रार की चीजों को लेकर इतने संवेदनशील है तो शरीर को लेकर तो हम रहेंगे ही। शरीर से ही दूनिया हमें सुंदर दिखेगी। इसतरह मेरे पापा हर रविवार को रात का खाना एवायड़ करते हैं। और पूरे दिन के उपवास से दूर भागते है।

मैं सोच रही थी पश्चमी देश अब कितना बदल रहा है जो भारत को सांपो और तमाशो का देश समझता आ रहा था वह अब भारत की संस्कृति को चाहे प्रयोगशाला में जांच कर धीरे धीरे मानने लगा हो चाहे जैसे भी हो। वहां डॉटरस डे, हसबेंड डे, फादरस डे, आदि ना जाने कौन कौन सा दिन मनाने का प्रचलन शुरु हो रहा है। वे लोग भी अब भारतियों की तरह परिवारवाद के महत्व को समझ रहें है। रिश्तों के टूटन एक गंभीर दूर्घटना है। शारीरिक टूट तो ठीक हो जाती है पर रिश्ते जब कमजोर पड़ जाते हैं तो असुरक्षा की भावना जग जाती है जो किसी को भी दबोच सकती है और वह किसी भी पल डिप्रेशन का शिकार हो जाता है।

हमारे यहां डिप्रेशन नाम का कोई शब्द नहीं था। लोग परिवारों में रहते हैं चाहे वह पेशेवश दूर शहर में रहें पर रिश्तों की गर्माहट से हमेशा जुड़े होते हैं। आज भी परिवार में एक व्यक्ति का दर्द दूसरा महसूस कर पाता है। जैसे पश्चिमी देश हमारा अनुशरण धीरे धीरे कर रहा है वैसे ही हमारी पीढ़ी भी विकसित देशों का अनुशरण कर रही है औऱ वहीं दिक्कतों का सामना कर रही है जो वे लोग वहां कर रहे हैं और साल में एक दिन नो ड़ाइट डे मनाने को प्रतिबद्ध हैं। भारतियों की इस पीढी और अगले आनेवाली पीढ़ी को यह समझना चाहिए कि हम अपनी चीज को खोकर फिर से सीखनेवाली स्थीति में ना आ जाऐं।

रविवार, 3 मई 2009

ट्रेन में झ न नन - झ न नन होय रे

ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे
ट्रेन में बैठे दो बंगाली- आशुन बोशुन- आशुन बोशुन, आशुन बोशुन होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे....
ट्रेन में बैठे दो मद्रासी - इड़ली-दोसा, इडली-दोसा, इडली-दोसा होय रे
ट्रेन में झ न नन झ न नन होय रे....
पता नहीं यह गीत पापा ने कहा से सीखा हो पर हमें तब पता चला जब मैं पहली बार अपने परिवार के साथ में ट्रेन यात्रा कर रही थी। उस वक्त मैं शायद तीसरी क्लास में होंगी। फिर कभी याद भी नहीं कि हमलोग एक साथ कभी ट्रेन की यात्रा किये भी कि नहीं.
अब मुझे अपनी दो बेटियों के साथ एक ट्रेन की यात्रा करनी है। तो मेरी सबसे पहली शर्त है कि कम से कम एसी की टिकट। नहीं तो मायके जाने के का भी प्रोग्रोम कैंसिल। ऐसे में वह मेरी पहली यात्रा की याद आ रही है। ...
मुझे जो थोड़ा बहुत याद है कि पापा जब अपने एक महीने की विदेश यात्रा से लौटे तो हमलोग अपनी दादी घर पूसा जाने की तैयारी करने लगे। तैयारी करना मतलब मुझे कपड़े तो नहीं समेटने थे पर मेरी तैयारी मतलब, कि मैं देख लूं कि मेरे पेड़ में अमरुद काफी पक चुका है तो और कोई और ना तोड़ ले इसलिए किसी मजबूत आदमी की मदद से पेड़ हिलवाना और बिल्कुल
पके 50-70 अमरुद गिरे और मैं सारे को पैक कर ले जाना। ऐसा कर पाई कि नहीं, ठीक से याद नहीं. रात को मां निकलते वक्त पैर में आलता लगा रही थी। मैंने देखा और मां की नजर बचा कर आलता पर हाथ साफ कर रही थी, तभी पकड़ी गई मां ने देख लिया तो मुझे एक ही पैर में आलता लगाए पूसा तक जाना पड़ा। बस, ये बातें यादों के एलबम में है।
उस वक्त हमलोग दो या तीन ट्रेन का नाम ही जानते थे- टाटा पटना, टाटा मुजफ्परपुर, और सुपरफास्ट। कई लोग तो सात बजे या दस बजे वाली गाड़ी के नाम से भी जानते थे। ट्रेन में बैठने के बाद पापा जी का मस्ती शुरु होता था। और मैं सबसे ऊपर के बर्थ पर जा कर बैठ गई। बड़ा मजा आता था छोटपन में ऊपर के बर्थ पर बैठने में। हम सभी चार भाई बहन को पापा ने गाना सिखाया और हमलोग खूब मजे से गाना गाते हुए सो गए। सुबह उठे तो हमारा बड़ा वाला वीआईपी गायब था। उसमें हम सब के नए कपड़े, पापा की विदेश यात्रा से लाए कई सामान जिसमें मुख्य रुप से कैमरा और मां का पांच रुपए का नया गड्डी चला गया। सुबह ही हम सब का मुड खराब हो गया पर पापा मस्त थे।
ट्रेन में सुबह होते ही गर्मी लगने लगी और लोग सभी ने पंखे और सुराही खरीदना शुरु किया। बड़ा मजेदार दृश्य होता था तब जब लोग दिन के वक्त क्या रात के वक्त भी पानी भरा सुराही खरीदते थे और हाथ पंखा। उस समय लोग यह भी नहीं देखते थे कि सुराही का पानी कहां से भरा है बस पानी होना चाहिए औऱ मन को तृप्त करना चाहिए। सुबह होते ही कुछ अंदाज में चाय-पूड़ी-सब्जी की आवाज लगाते वेंडर मेरे कौतूहल के पात्र थे। टाटा-पटना ट्रेन में बैठने का मेरे लिए मुख्य आकर्षण था, आद्रा स्टेशन पर बिकने वाला केक। यहां केक खाकर कुछ देर के लिए मन में बड़ड़पन आ जाता था क्योंकि केक वगैरह तो बड़े लोग ही खाते थे।
तो मैं देख रही हूं बदलता समाज नहीं है, हम ही बदल जाते है। वह समय भी याद है जब ट्रेन के सफर के लिए लोग सबसे खराब कपड़े का एक जोड़ा अलग रखते थे। चेहरा काला काला भी हो जाता था। पर आज ट्रेन के सफर के लिए अलग से कपड़ा नहीं होता। पिछली बार जब मैं राजधानी से लौट रही थी तो नया सूट पहन लिया था क्योंकि अब ट्रेन का स्तर देख कर कपड़ा पहनने रिवाज है। नहीं तो लोग क्या सोचेंगे, का डर समाया रहता है। और चूकि सब जानते हैं कि कोई कुछ भी नहीं सोचेगा। क्योंकि कब किसका स्टेशन आ जाए पता ही नहीं चलेगा।

पुनीता

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

ट्रैफिक जाम अब मुझे लुभाता नहीं

हमारा बचपन

"टैफिक में फंसा युवा भारत"

बचपन की यादों को जितना मैं सहेजना चाहती हूं, वह मुट्ठी में बंद रेत की तरह है जिसे मैं जितना ही जकड़ कर पकड़ने की कोशिश करती हूं वह उतनी ही तेजी से सरसराता हुआ मेरी मुटठी से निकल जाता है, और मेरा हाथ खाली का खाली ही रह जाता है।

पर फिर भी मैं अपनी कोशिश को आगे बढाऊंगी और अपने दिनों को आज के संदर्भ में याद करुंगी।
जन्म जमशेदपुर में होने के कारण हमलोगों ने कभी ट्रैफिक जाम को महसुस नहीं किया था। वह शहर इतना व्यवस्थित है। वहां के लोगों को इस महा मुसीबत का सामना आज भी नहीं करना पड़ता है। कारण शहर की अच्छी यातायात व्यवस्था तो है ही और दूसरा मुख्य कारण मुझे वहां कारखानों में होने वाला शिफ्ट ड्युटी भी लगता है। शिफ्ट ड्युटी के कारण टुकड़ों में लोग काम पर निकलते हैं और सामान्य ड्युटी वाले दस से पांच वाली अपनी शिफ्ट मजे से पूरी करते हैं। इस तरह कम चौड़ी (दिल्ली की तुलना में संकरी) सड़कें भी स्कूल, आफिस या फिर कारखानों में आने-जाने वालों के लिए हमेशा साफ और खुली रहती है। हर समय नियंत्रित ट्रैफिक।

अपनी शादी के बाद जब मुझे दिल्ली होते हुए पंजाब जाना पड़ता था तो दिल्ली स्टेशन की रोशनी मुझे चकाचौध करती थी। ट्रेन से ही जब लम्बा जाम देखती तो कारों की संख्या पर विश्वास नहीं होता था। लगता था शायद यही स्वर्ग है। रात की रोशनी में सभी गाड़ियां मुझे सफेद ही दिखती थी। और मैं यही सोचा करती थी कि क्या मेरे पास भी कभी गाड़ी होगी और मैं भी यूं ही लम्बे लाइन का इंतजार कर पाऊंगी। मुझे ट्रेन से जाते या आते वक्त दिल्ली की रंगरलियां ही सिर्फ दिखती थी। दूर दूर तक बल्ब का टिमटिमाना मुझे बहुत आकर्षित करता था। पर मैं यहां रहने का कभी सपना नहीं देखती थी लेकिन मुझे ट्रैफिक में फंसना रोमांचित करता था उस वक्त।

अब स्थिति बिल्कुल अलग है। मैं भी अब महानगर का हिस्सा हूं। रोशनी चकाचौध तो करती है और आकर्षित भी करती है पर मोह नहीं पाती। अब मजबूरी है तो उस जाम का हिस्सा मैं भी कभी कभी बन जाती हूं। बस में मैं बैठ बाहर टकटकी बांध देखती हूं जीवन की सच्चाई को जो अब मोहित नहीं करता। सिर्फ आगे बढ़ने की अंधी दौड़ को कायम रखने की जुगत ही मुझे जाम में फंसा देता है। महानगर की सच्चाई से जो जूझते हैं वह थक हार कर घर लौटते हैं और फिर ना जाने अगले दिन के लिए उर्जा कहां से ले आते हैं फिर से उस ट्रैफिक जाम से लड़ने का।

शादी हो या कोई पर्व फिर तो जाम की कोई बिसात नहीं। जाम में फंसा व्यक्ति सब को फोन पर ही बताता रहता है कि वह अब कितने देर में पहुंचेगा। पर मजे की बात यह भी है कि लोग जाम का बहाना भी खूब बनाते हैं। बस में खूब सुनने को मिल जाता है कि अरे यार, थोड़ी देर मेरा और वेट कर लो मैं बस पहुंचने ही वाला हूं, क्या करुं जाम में फंसा हूं। बहुत अच्छा बहाना है। फिर अगला भी कुछ नहीं कहता, ज्यादा जानकार व्यक्ति उसे दूसरा रास्ता समझाने की कोशिश करने लगेगा। ट्रैफिक सिग्नल पिक्चर देखने के बाद कुछ जाम में फंस कर अपने आमने सामने भीख मांगते लोगों को शक की निगाह से देखने लगते हैं। और उनका पिक्चराइजेशन भी करने लगते हैं कि फलाना बच्चा तो यूं ही दिखता था और ऐसे ही चीजें बेचता या भीख मांगता था।

जाम की त्रासदी उसमें फंसे लोग ही बता सकते हैं जो घर जल्द जल्द से लौटना चाहते हों और किसी वजह से जाम का हिस्सा हो गए हों। जाम में बिताया गया समय और ऊर्जा का ह्रास देश की बहुत बड़ी समस्या है। सरकार के पास बहुत बड़े बड़े एजंडे है। कई फ्लाईओवर बना चुकी है कई बना रही है पर जाम बदस्तूर जारी है।
जाम से राहत के कई तरीके लोग अपनाते हैं पर अगर सब मिल कर इसका समाधान खोजें तो शायद हम जाम रुपी महाकाल से बच पाएंगे।
मैं उन सारे लोगों को नमन पहले करना चाहुंगी वह जिस वजह से भी हों पर पब्लिक ट्रांसर्पोट इस्तेमाल करते हैं। कितनी दिक्कतों का सामना उन्हें करना पड़ता है। इसे मजबूरी का नाम गांधीजी नहीं समझना चाहिए।
सरकार को भी चाहिए कि वह पब्लिक ट्रांसर्पोट को ज्यादा से ज्यादा बेहतर बनाए। एसी बसों की संख्या भी उतनी ही ज्यादा हो ताकि लोग अपने कारों को घर पर छोड़ प्राइवेट बस का सफर करने में सकुचाए नहीं। बहुत सारे परेशानियों का हल यूं ही निकल जाएगा जब लोग अपने गाडियों का इस्तेमाल बहुत कम करना शुरू कर देंगे।
बस दुआ कीजिए कि अगली बार जब भी हम जाम में फंसे तो यह सोचने पर मजबूर हों कि क्या इससे बचा नहीं जा सकता है। हमारी युवा शक्ति यूं ही जाम में खड़े खड़े बूढ़ी हो जाएगी और हम सिर्फ युवा भारत होने का ढ़ोग करते रह जाऐंगे।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

RESERVE CONSUMPTION

यह मेल मुझे मेरे पापा ने भेजा है। मैं अपने बचपन की यादों को सहेजते हुए यह बताना चाहुंगी कि चुकि मेरे पापा अभी टिसको के रिसर्च डिपार्टमेंट में डी.एम के पदभार को संभाले हुए है और एनर्जी कनसर्वेशन को लेकर हमेशा विचार मग्न रहते हैं. बचपन से वे हमे समझाते आ रहे हैं कि किस किस तरह से हमसब एनर्जी को बचाते हुए आने वाले जनरेशन को कुछ दे पाऐंगे अन्यथा हमारे हाथ अपने बच्चों को देने के लिए घर, पैसा, ऐशोआराम तो होगा पर दुषित पानी, जहरीली हवा, औऱ रासायनिक तत्वों से भरा खाद्य पदार्थ उन्हें देने के लिए हम बाध्य होंगे।

तो वे सारे लोग जो इस पोस्ट को पढ़े हों और हमारी इस कोशिश में सहयोग करने की इच्छा रखते हों तो अपना सुझाव जरुर दीजिए कि कैसे हम लोग सामानो को रिसाइकिलिंग कर, कुछ हद तक ग्लोबल वार्मिंग को बचा सकते हैं। और भी उपाय जो सहज ढंग से हम कर सकते हैं सिर्फ अपनी इच्छा शक्ति के दम पर।
आभार पुनीता


RESERVE CONSUMPTION


Buddha, one day, was in deep thought about the worldly activities and the ways of instilling goodness in human beings. One of his disciples approached him and said humbly "Oh my teacher! While you are so much concerned about the world and others, why don't you look in to the welfare and needs of your own disciples also?"

Buddha : "OK.. Tell me how I can help you"

Disciple : "Master! My attire is worn out and is beyond the decency to wear the same. Can I get a new one, please?"

Buddha found the robe indeed was in a bad condition and needed replacement. He asked the store keeper to give the disciple a new robe to wear on. The disciple thanked Buddha and retired to his room. A while later; he went to his disciple's place and asked him "Is your new attire comfortable? Do you need anything more?”

Disciple : "Thank you my Master. The attire is indeed very comfortable. I need nothing more"

Buddha : "Having got the new one, what did you do with your old attire?"

Disciple : "I am using it as my bed spread"

Buddha : "Then.. hope you have disposed off your old bed spread"

Disciple : " No.. no.. master. I am using my old bedspread as my window curtain"

Buddha : " What about your old Curtain?"

Disciple : "Being used to handle hot utensils in the kitchen"

Buddha : "Oh.. I see.. Can you tell me what did they do with the old cloth they used in Kitchen"

Disciple : "They are being used to wash the floor."

Buddha : " Then, the old rug being used to wash the floor...?"



Disciple: "Master, since they were torn off so much, we could not find any better use, but to use as a twig in the oil lamp, which is right now lit in your study room."

Buddha smiled in contentment and left for his room.

If not to this degree of utilization, can we at least attempt to find the best use of all our resources at home and in office? We need to handle wisely, all the resources earth has bestowed us with ….both natural and material so that they can be saved for the generations to come. Reserve Consumption !!!

आभार
पुनीता

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

आम तो खट्टे हैं, पर मन है उचाट


गर्मी के दिनों की शुरुआत हो रही है औऱ आम के पेड़ में लगे मंजर छोटे छोटे आम बन रहे होंगे। मैं उम्मीद कर रही हूं कि आम आधी इंच के हो गए होगे। आम का पेड़ औऱ उसमें लगे आम काफी आकर्षित करते हैं राहगीर को। मैं जब अपने स्कूल से वापस आया करती थी तो (जमशेदपूर की रहने वाली हूं) तो टीसी क्लॉनी के क्वाटर में एक कोने के घर पर आम का पेड़ लगा था और उसके छिलके लाल रंग के थे। स्कूल आते और जाते वक्त पेड़ को देखना नहीं भूलती औऱ मन ही मन सोचती कि उसमें रहने वाले आदमी कितने बड़े लोग होंगे।

पता नहीं उस घर से तो मुझे कोई दिखा कि नहीं पर आज भी वह पेड़ मुझे याद आता है।

जमशेदपुर टाटा स्टील द्नारा बनाया गया एक व्यवस्थित शहर है। जहां उसके कर्मचारी को घर भी रहने को दिया जाता है और सभी घर के बगान मे कोई ना कोई पेड़ हैं। सड़कों के दोनो ओर तो पेड़ों की कतार है। विदेशी पेड़ नहीं दिखते। खास देशी पेड़ अपने में जंगलीपन लिए उगता है। अधिकतर फलदार, छायादार पेड़ होते हैं। अजीब सी खूबसुरती दिखती है। जब आमने सामने क्वाटर पेड़ों की कतार और फिर चौड़ी सड़क हो तो।
स्कूल से आते जाते या कभी भी घर से निकलते थे तो सब के घर के आम का पेड़ ही दिखता था। और आपस के बातचीत में भी यह बात उठती थी कि फलाना के घर इसबार खूब मंजर लगा है, और फलाना के घर उससे कम। मंजर की याद आते ही याद आता हैं कि कैसे पहली बारिश में आम के मंजर को अपनी पहली परीक्षा देनी पड़ती थी। मौसम तो सुहाना हो जाता था पर रोड़ पूरे मंजर से भर जाता था। सुबह जमादार (सफाई कर्मी) की शामत आता होगी। सरवाइवल फॉर द फिटेस्ट वाली बात होती मंजरो में भी। फिर कुल मिलाकर हजार हजार मंजर में बमुशि्कल दस पोपले लगते थे।
आम के आकार का बढ़ना हम पेड़ से कम अपने सहेलियों द्वारा स्कूल में लाए जाने से ज्यादा जान जाते थे कि अब आम इतना बड़ा हो गया है।
स्कूल में जो सबसे बड़े आकार का आम लाती उसकी इज्जत थोड़ी बढ़ जाती थी। और सभी उसे ललचाई दृष्टि से देखते। पर वह किसी को कुछ नहीं देती। हमारा बचपन प्रेमचंद्र के बचपन की तरह नहीं था इसलिए गांव की बात तो पूरी तरह नहीं होती पर शहर और गांव के मिला जुला रुप से हमारा बचपन गुजरा है। इसलिए ना पूरी तरह गांव की हो पाई और ना ही शहर की उस आबादी की तरह जो अपने बारे में ही सिर्फ सोचते हैं।

और तो थोड़ी भटकन के बाद फिर से मैं अपने बचपन में आती हूं कि स्कूल में सबसे बडे आकार के आम लाने पर वह लड़की कितनी अपने को महान समझती थी जैसे कि पूरी जन्नत उसकी हो। घर में पापा कच्चे आम देख कर ही गुस्सा हो जाते थे। शायद ही कभी अचार खाए हों। इसलिए कच्चा आम की इच्छा बढ़ती ही जा रही थी।
भरी दोपहर जब घर पर सब सोते तो मैं अपने घर के छत मतलब क्वाटर का छत जो ग्रिल के सहारे से चढ़ती और आम के पेड़ के छांव में बैठ जाती।
हमारे बगल के क्वाटर में खोकन चाचा लोग रहते थे। बंगाली परिवार था और काफी लोग थे उस घर में इसलिए उनके आम के पेड़ की रखवाली करना कोई मुशि्कल बात नहीं थी पर मैं तो छत पर चढ़ कर आम तोड़ती पर फिर भी मेरी सहेलियों से मेरे आम का साइज कम ही रहता था। काफी गर्मी के बाद अगर बारिश हो गई तो आनंद की पराकाष्ठा होती मेरी। मैं मां से छुप कर आम चुनने निकलती। सब के घर के सामने नाली होता है वहां पर और वह बारिश के पानी के लिए ही बना होता है, औऱ सभी वक्त सुखा ही होता है जो हमारे चोर पुलिस खेलते वक्त छुपने की जगह हुआ करता था । बारिश के दिनों में पानी
भर जाता और कोई आम अगर उसमें जा गिरा होता तो बहुत अफसोस होता। मेरे घर से और कोई नही निकलता मेरी दीदी को तो मार पड़ती थी कि घर पर क्यों घुसी रहती हो आज वह स्कूल की प्रिंसिपल है औऱ मुझे मार पड़ती थी कि तुम इतने देर तक क्यों खेलती रहती हो। मुझे खेल में भीबहुत प्राइज मिलता था। बचपन में बिताए क्वाटर में बारह साल बिताने के बाद हमें जबरदस्ती बड़े क्वाटर में जाना पड़ा। हमारे इस क्वाटर में अमरुद तीन पेड़ थे। घर के सामने बगान में दो और पीछे आंगन में एक। एक पेड़ में काफी अमरुद लदा होता था और दुसरे में काफी कम पर बहुत टेस्टी। पीछे आंगन के पेड़ पर चढ़ना संभव था इसलिए मैं अपना काफी समय उसपर गुजारती थी। मुझे तो हर एक आमरुद का पता होता कि हरदिन वह कितना बढ़ रहा है। मैं तो कई बार मुंह से काट कर डाल पर ही लटके रहने देती कि इसे तीन या चार दिन बाद तोड़ा जा सकता है।
यह सारी बात लिखने की इच्छा इसलिए बलवत हुई कि मैं संडे मार्केट में कच्चा आम देखी। बहुत महंगे थे फिर भी मैने खरीदा क्योंकि उसका साइज मेरे बचपन के दिनों की याद से बहुत बड़ा था। मैं आज भी अपने उन सहेलियों के लाये गए बड़े साइज के आम से अपने को कम मानती हूं कि मेरे पास वह नहीं है। और शायद इसलिए मैं हर गर्मी के मौसम में सबसे पहले कच्चे आम खरीदती हूं। अब मुझे खाने की बहुत इच्छा नहीं होती उस वक्त भी नहीं होती थी पर एक जिद।