मंगलवार, 31 मार्च 2009

लम्हें

लम्हें

जिन लम्हों में, राजहंस आकांक्षाओं के
मनसागर में, पंख खोले इठलाते हैं
लहराते हैं, तिर जाते हैं कितनी दूर तलक।
जिन लम्हों में भीषण पर्वत को
तोड़-तोड़ धाराएँ, कि जाने किस ख्याल से
होकर, बेखौफ, चली आती हैं
मदमाती हैं बढ़ जाती हैं
छल छल करके।
जिन लम्हों में, भीतर हरहराने पर
जब्त हुए शब्दों को भी
कह देते स्पर्शोन्मुख अधराधर
चुपचाप पढ़ा करते हैं सिहरन की
भाषा को औऱ मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।
जिन लम्हों में काया की दीवारें
अंतर की मधुर वेदना में
अपने को खोकर हर्षाती
और सिमट-सिहर ढह जाती हैं।
जिन लम्हों में, भंवरे कलियों की परत-परत
को खोल-खोल बेसुध सौरभ से सने हुए
आते है, जाते हैं
औऱ बार-बार मुस्काते हैं, गाते हैं।
जिन लम्हों में, कोयल, चातक, चकोर
अपने प्रियतम को टेर टेर थक जाते हैं
फिर भी युग युग से प्रीति निभाए जाते हैं
उन दिव्य अलौकिक और चिरन्तन लम्हों को मेरा प्रणाम
जिनके रहस्यमय मादक, मोहक उदभावन को
कोई भी नहीं समझ पाया, लगता है ये चिर-परिचित हैं
लगता है नितान्त
अपरिचित हैं।

हमारा बचपन नाम का ब्लॉग बनाकर मन ने चाहा था कि मैं बचपन के लम्हों को बार बार जीयूं. और इसलिए ही मैं प्रयास रत्न हूं। बचपन की डायरी को पलट रही थी और मुझे एक कविता दिखी जो मुझे उस समय बहुत पसंद आती थी। कविता का भाव पता नहीं मैं उस समय समझ भी पाती थी कि नहीं पर मुझे यह कविता अच्छी जरुर लगती थी। लेखक से मैं अपरिचित हूं क्योंकि यह कविता मेरी फुफेरी बहन ने मेरी डायरी में लिखी थी। शायद यह उसकी ही लिखी कविता हो।

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

मिठी और डॉक्टर


सुबह मेरी मिठी की तबियत बहुत खराब हो चुकी थी। अब उसे दस्त भी होने लगा था। पिछले दो दिन से उसे बुखार हो रहा था। पता नहीं चल पा रहा था कि उसे बुखार क्यों हो रहा है। खांसी तो थी पर ज्यादा नहीं थी। सांस लेने में उसकी छाती से आवाज आती थी। सोच रही थी कोई बात नहीं ठीक हो जाएगी यूं ही। और इसलिए मैंने उसे डॉक्टर को दिखाए बिना बुखार की दवा देती रही। अब मैं सोच रही हूं मैने ऐसा क्यों किया पहले ही डॉक्टर को क्यों नहीं दिखा लाई। तीन दिनों तक सोचती रही थी कि फालतु में सौ रुपय डॉक्टर को होम हो जाऐंगे और मेरी मिठी को एंटीबॉयटिक खाना पड़ जाएगा। दोनों ही स्थिति मेरे मन मुताबिक नहीं थी। इसलिए मैं अपना इलाज चलाने लगी। पति रोज कह कर जाते डॉक्टर को जरुर दिखवा लेना। पर मैं नहीं गई। बहाना बना दिया ताकि मेरे सौ रुपय बच जाएं औऱ मिठी एंटिबॉयटिक ना पीये।


दरअसल मिठी की तबियत खराब होने में कसूर ही मेरा है। उसे मैने जमकर ठंडे अंगूर खिला दिया था जो खराबी कर गया।


सोमवार की सुबह उसकी पहली दस्त देख कर मैं डॉक्टर के पास जाने का मन बना ली थी। और तैयार होते ही पंद्रह मिनट में एक और दस्त। घबड़ा गई। उसके चेहरे की हंसी गायब थी औऱ वह सुस्त पड़ रही थी। घर में अब कोई सवारी न होने के कारण मैं अपने पति के साथ ही पांव पैदल निकल गई। रिक्शेवाले को ढुंढा पर वह दस मिनट बाद ही आता और अब मैं उसका इंतजार नहीं कर सकती थी, मैं चल दी। डॉक्टर का पता पूछने मैं जैन मंदिर के अंदर घुस गई। वहां अंकल से पता पूछा और आग्रह के स्वर में बोला, क्या डॉक्टर साहब सौ रुपय से कम नहीं लेते। अंकल ने बड़ी अच्छी कही कि तुम कहना मैं जैन मंदिर से आई हूं पैसे थोड़ा कम ले लो। उन्होने कहा कि डॉक्टर आदमी के चेहरे देखकर पैसे की चपत मारते है। कुछ कर नहीं सकती थी इसलिए सड़क की लंबी चक्कर काटकर डॉक्टर के घर पहुंच गई। वहां पहले से एक मार्डन मां अपनी बिटिया का इलाज करवा रही थी। ड़ॉक्टर ने उसे बच्चे के सांस लेने में हो रही तकलीफ को कम करने के लिए एक मशीन में दवा डाल उसे उसका भाप देने का प्रयास करने लगा। और बच्ची थी कि लगातार रोई जा रही थी औऱ मुझे यह सब देखकर कोफ्त हो रही थी कि यह डॉक्टर अपने बिल को बढ़ाने के लिए इतना छल प्रपंच कर रहा है। बाद में डॉक्टर ने उसके सौ रुपय देने पर पचास रुपय वापस कर दिए। मुझे राहत हुई औऱ मैं खुश हो गई कि शायद घर पर दिखाने का फीस पचास रुपय हो और मार्केट वाली क्लीनिक का फीस 100 रुपय लेते होंगे। अब मेरी बारी आई, और मैं यह बताने की उन्हें कोशिश करती रही कि यह सारा दोष फ्रिज में रखे ठंडे अंगूर ज्यादा खिला ने से हुआ है। डॉक्टर ने उसे अच्छे से देखा, दवा लिखी और खाने का तरीका बता दिया। अब पैसे देने की बारी आई, मैने सौ रुपय का नोट उनके सामने रख दिया और पचास रुपय लौटने का इंतजार करने लगी पर डॉक्टर सौ रुपय ड्रावर में डाल उसे बंद कर चुके थे। मैं समझ गई पर धीरे से कहा सौ रुपय हैं फीस क्या और उन्होने लम्बी सी मुस्कान दे हल्का सा सर हिला दिया। औऱ भी पेर्शोंट थे और मैं बिना उनसे कुछ कहे वापस आ गई। सोचा चलो कोई बात नहीं मैने रिक्शे के तो 15 रुपय बचा ही लिए ना। मैं घर लौट चली आई रास्ते भर सोचती आई कि सौ रुपय बचाने के चक्कर में मैने बेकार अपना दिमाग लगाया औऱ डॉक्टर जमात को कोसने लगी कि यह पांच मिनट देखते हैं और बेफीजूल उसके सौ रुपय ले लेते हैं। डॉक्टर की दवा खाकर मिठी को आराम हुआ और वह सो गई अब वह अच्छा महसूस कर रही है।

और मैं अब यह सोच रहीं हूं कि मैं डॉक्टर को उनके फीस से ज्यादा कुछ नहीं दे पायी, पर उन्हें दुआ हमें जरुर देनी चाहिए।
और इसके लिए तो डॉक्टर ने तो मात्र सौ रुपय ही लिए। डॉक्टर जो कठिन मेहनत कर अपनी पढ़ाई पूरी करते हैं,क्या उन्हें अपने बचपन में ज्यादा खेलने का मन नहीं करता होगा, क्या वह अधिक शैतानी करना नहीं चाहते होंगें, क्या उनका मन औरों को मस्ती कर देख बावला नहीं होता होगा। पर वह अपने मन को काबू में कर सिर्फ पढ़ाई करते हैं, मन को यह समझाते हैं कि मस्ती तो बाद में भी की जा सकती है पर पढ़ाई अगर छूट गई तो जीवन में कुछ भी हासिल नहीं होगा। हमारे नन्हें मुन्नो के चेहरे में हंसी लाने के लिए वह दिन रात पढ़ाई करते हैं जिसके एवज में वह अपने जीवनयापन के लिए फीस नुमा कोई चीज मांगते हैं।

मेरी मुरझाई सी बेटी खिलने वाली है। और मैं अपने डॉक्टर को धन्यवाद देती हूं। लाख-लाख धन्यवाद।

पुनीता

रविवार, 8 मार्च 2009

मैं और महिला दिवस

कल महिला दिवस था और अनेक कार्यकम्र आयोजित किए गए। इस मौके पर महिलाएं बोली और बोलती चली गई। आदतन तो अब नहीं कहा जा सकता क्यों कि अब माहोल पहले जैसा नहीं है। लोग पहले कह दिया करते थे कि अरे महिलाओं का दिमाग तो घुटने में रहता है। या रामायण की उक्ति कि ढोल, गवांर, शुद्र, पशु, नारी सभी ताड़न के अधिकारी। समय था जब महिला की तुलना पशु से की जाती थी। पर अब नारी सशक्त है कारण उसका आथिर्क विकास हो रहा है। पारिवारिक जिम्मेदारियां के साथ आर्थिक जिम्मेदारियां भी वह बखुबी वहन कर रही है। इसलिए उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ रही है।


कल महिला दिवस के उपलक्ष्य पर आयोजित एक कार्यक्रम की मैं भी साझेदार बनी और महिला वक्ताओं को सुना। प्रसिद्ध वक्ताऐं थी और सभी ने अपनी बात सबके सामने रखी। बिना किसी का नाम लिए मैं बताना चाहुंगी कि महिला दिवस पर एक महिला आयोग की सदस्या ने खूब लम्बे चौड़े अपने भाषण में सिर्फ और सिर्फ यही बताया कि हमारी सरकार नारी मुक्ति आंदोलन को किस तरह बढ़ावा दे रही है। कितने तरह के कानून बना रखा है महिला की सुरक्षा के लिए। अफसोस, अनपढ़ तो ना सही पर पढ़ी लिखी महिला भी उन सारे कानूनी अधिकार को नहीं जानती। और वह सामाजिक, व्यवसायिक, मानसिक, घरेलू अत्याचार की शिकार बनती रहती है। अत्याचार शब्द से ही गुलामी की बू आती है। हर कोई अपने से कमजोर पर ही अत्याचार करता है। इसतरह महिला पुरुष प्रधान सामाज में सबसे कमजोर मानी जाती है वह बड़ी आसानी से अत्याचार की शिकार हो जाती है। जो धीरे धीरे दासता की ओर ले जाता है ओर महिला इसे समझ नहीं पाती। एक समय आता है जब महिला पूरी तरह दासत्व प्रसन्नता से स्वीकार करती है। और कई बार हमारे पढ़े लिखे समाज में पढ़ी लिखी महिला इमोशनल अत्याचार की भी शिकार होती है।
कानून जानना, समझना और याद रखना यह जरुरी है हर महिला को। ऐसा महिला आयोग के सदस्या मानती है।
फिर वक्ता थी एक मैटरीमोनियल वकील- सुंदर, सोम्य, वाचाल। पर उसने खरी खरी सुनाई। मीड़िया के लोगों के द्नारा उसका गलत इस्तमाल और कानून के लचिलेपन को जिसका लोग फायदा उठाते हैं। उसने भी यही कहा कि हर महिला को कानून जानना समझना चाहिए पर उसका दुरउपयोग नहीं करना चाहिए। व्यवसायिक जिम्मेदारियों के साथ हर महिला को घरेलू जिम्मेदारी को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए। आर्थिक तौर पर मजबूत महिला को यह समझना चाहिए कि मातृत्व जो उन्हें वरदान में मिला है उसे वह सवारे। औऱ वह पारिवारिक जिम्मेदारियों से कभी मुंह ना मोड़े। परिवार ही भारत की जीड़ीपी रेट को आगे बढ़ाता है। हर व्यवसायिक मां अगर अपने बच्चे को ठीक तरह से दुलार, संस्कार दे पाएगी तभी एक उज्जवल चरित्र का विकास हो पाएगा।
फिर तीसरी महिला जो दो बार माउंट एवरेट फतह कर चुकी थी ने अपने जीवन के कुछ अनमोल लम्हे हमारे साथ बांटा। हरियाणा की यह जाट लड़की ने किस तरह सभी की मर्जी को रखते हुए अपना लक्ष्य साधा। उन्होने यह बताने की कोशिश की कि हर महिला को अपने जीवन में एक प्लान कर लेना चाहिए और उस प्लान के तहत बहुत आहिस्ते आहिस्ते से अपने मंजिल को साधना चाहिए। दृढ़ निश्चय ही हर महिला की सफलता की कुंजी है। मुझे उनकी बात बहुत अच्छी लगी।
युनिसेफ की प्रतिनिधी ने भी अपनी बातों को रखा। वह बंगाल, भारत, नेपाल में हो रही महिलाओं बॉडर ट्रैफिकिंग की पीड़ा को रखने की कोशिश की। वह महिला पर विश्व में हो रहे अत्याचार पर भी विचार विमर्श की। हर घंटे होने वाले महिला रेप के आंकड़े को बताते हुए कहा कि मैं यह सोच कर ड़र जाती हूं कि अगर यही रेप या टैफिकिंग मेरे अपने नाती, पोते या रिस्तेदार के साथ हो तो मुझ पर क्या बीतेगी. वैसा ही उन महिलाओं के संवेदन को महसुस करते हुए उन्होने अपनी मौत की भी परवाह न करते हुए कहा है कि वह अफगानिस्तान में महिला उत्थान का कार्यक्रम चलाएगी।
रंभा ने भी अपने अनुभवों के द्वारा यह बताया कि अब पुरुषवर्ग बदल रहा है। व्यवसायिक महिला को घरेलु कामों में मद्द की जाती है वहीं घरेलु महिला भी आर्दश समाज की कल्पना कर रही है। जहां घरेलु हिंसा का आंकड़ा नगण्य हो।
इस तरह कई लोग अपने मंतव्य को रखते हुए कार्यक्रम को समाप्ती की ओर ले गए और अंतिम में यह गुजारिश रही की ऐसी बैठक होती रहनी चाहिए जब महिलाए आपस में बातचीत कर सके।
मैं एक हाउस मेड़ महिला हूं। जो अपने जीवन को बहुत ही प्रैक्टीकल ढंग से चला रही है। मेरे छोटे से घर में मेरे हसबैंड़, मेरी दो बेटियां, मां और भतीजा रहता है। हमारा घर घरेलु हिंसा से तो मुक्त है ही और नारी प्रधान भी है। पुरुषों की बात घर के अंदर नहीं चलती वे बाहर में प्रधान होंगे पर हमदोनो घर के प्रधान हैं। सासुमां ने जो कह दिया पापा उसे अक्षरस्य मानते हैं और मेरे पति अपने पिता के ही कदमों पर चलना पसंद करते हैं। हमारे घर में भी झगड़े होते हैं पर अगले ही पांच मिनट में वह सब ठीक हो जाता है। क्योंकि हम सब यह जानते हैं कि हमसब आपस में प्यार करते हैं और यह लड़ाई मात्र विचारों की है। किसी को किसी से वैर नहीं है सब एक दूसरे का भला देखना चाहते हैं। कभी कभार विचार नहीं मिले तो बर्तन खनक जाता है पर वह दूसरे ही पल स्थिर हो जाता है। इस तरह मैं ने कभी कोई कानून नहीं जाना और नहीं जानना चाहती हूं। घर एक मंदिर है जहां आपको सुख और शांति मिलती है और जहां आप अपने आप को सबसे ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं। तो वैसी जगह की शांति भंग करने का किसी को भी अधिकार नहीं है। उन सारी महिलाओं से भी यही कहना चाहुंगी कि हर आदमी बहुत सुंदर है उसका मन बहुत सुंदर है बस जरुरत है उसे समझने की। अपने को बाजार के आधुनिकरण से रोकने की। बाजार जो एक पढ़ी लिखी एमबीए लड़की को प्रेम विवाह करने के बावजूद दो महिने में ही विच्छेद करा सकता है। वह हम सब के जीवन में कई खाई पैदा कर सकता है। यह आंखों देखी बात है। बाजार को दोष इसीलिए मैं देती हूं कि पहले ऐसी घटना नहीं होती थी पर आज हो रही है। बाजार सब के सर चढ़ बोल रहा है। एक कपड़े से संतुष्टी नहीं हैं। नये नये चाहिए वह भी कुछ हटकर। यह हटकर का जमाना है।
हम महिला भी अगर थोड़ा हटकर सोचें तो पुरुष सत्तात्मक समाज की ड़ोर धीरे से अपनी ओर खींच सकते हैं। बिना किसी आहट के, बिना किसी आंदोलन के, और बिना किसी कानून के। सिर्फ सच्चा समर्पण अपने पति के प्रति, अपने परिवार के प्रति, अपने समाज के प्रति हो तो नारी कभी भी अबला नहीं थी और आज भी अबला नहीं है।

गुरुवार, 5 मार्च 2009

रजास्थान का नवलगढ़ या हमारा बिहार का पूसा

सुबह के उजाले से पहले हम राजस्थान के नवलगढ़ इलाके में पहुंच गए थे. गाड़ी से उतरते ही ऐसा लगा कि हम एक उच्चकोटी के वयवस्था में अपना तीन दीन व्यतीत करेंगे. हमें कमरा सबसे ऊपर और किनारे में दिया गया था शायद बच्चों के शोर को देखते हुए। कमरे में घुसने तक लग रहा था कि यह किसी पूर्व राजा का महल होगा। कमरे की सोजो सज्जा भी मनमोहक थी और पूरा महल रुची पूर्ण ढंग से सजा हुआ था। मैं यहां आने के पहले नवलगढ़ का नाम तक नहीं जानती थी। और शायद आप भी नहीं जानते हों। सोची इतनी छोटी जगह पर क्या देखने को मिलेगा। पर मैं सचमुच गलत थी मैने तीन दिन में जो कुछ देखा सुना वह मेरे सोच को अब ज्यादा व्यापक और समृद्ध बना दिया है।


नवलगढ़ जो शेखावटी के नाम से भी प्रसीद्ध है, राजा शेखावट द्वारा बनाया हुआ है। रुप विलास पैलस उनका ही था और वह अच्छे लम्बे चौड़े जगह में फैला हुआ है। पहले जैसा भी रहा हो पर अब पैलस को हेरीटेज के रुप में बदल कर विदेशी पर्यटकों को लुभाता है। सभी कुछ कायदे में चलता है आतिथ्य का भरपूर लुत्फ उठाया जा सकता है। बाग-बगीचे के साथ लगा खेत खलीहान सुबह को अति रोमांचित कर देता है। चुकि हम दिल्ली में रहते हैं और सुबह को कभी महसुस नहीं कर पाते इसलिए हमारी सुबह तोते और मोर के आवाज को सुनते और उन्हें देखते कभी नहीं होती। इसलिए यह हमारे लिए अति आनंद का क्षण था जब मोर को यूं खुले में घूमते हुए अपनी बच्ची को दिखाना। कुल मिलाकर सुबह की जो कल्पना की जा सकती है वह स्वार्गीक होती है और ऐसा ही हम वहां देख रहे थे।

विदेशी-देशी पर्यटकों को बुलाने के लिए एक कार्यशाला का आयोजन मोनारक्का की हवेली में किया गया था। पक्ष-विपक्ष में बातें हो रही थी। औरगैनिक लंच की व्यवस्था लोगों ने खेतों के बीच में की थी। वहां पर सारा खाना औरगैनिक तरीके से उपजाया हुआ था। और खीलाने का ढंग भी बिल्कुल देशी। खटीया ड़ाल कर बैठाया गया और पानी भी औरगैनिक पीलाई गई मतलब कुएँ का पानी।

राजस्थान जिसे हम रेतों का शहर भी कह सकते हैं और जहां पर्यटक रेत देखने और ऊँट की सवारी करने के लिए जाते हैं उस राजस्थान के नवलगढ़ को मैने एक नए रुप में देखा। वह था एक दृढ़ नवलगढ़ जो धरती आग उगलती थी वहीं अब हरे भरे खेत दिखते हैं. जहां पानी का कोई स्त्रोत नहीं है वहीं पानी लाया जाता है। पर वहां के लोग अपनी धरती को उर्वरा करने के लिए उससे अत्यधिक पैदावार की अपेक्षा नहीं करते बल्कि पुरानी पद्धती का अपनाते हुए खेती कर रहें हैं। औरगैनिक खेती मतलब वैसी खेती जहां पर हम मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए देशी खाद का उपयोग करते हैं। ना ऊपर से और ना ही मिट्टी में ही कोई रासायनिक छिड़काव किया जाता है। कीट पतंगों को मारने के लिए भी देशी तरीका अपनाया जाता है। किसान लोग अब समृद्ध हो रहें है इस तरह की खेती से उन्हें सामान के अच्छे दाम मिलते हैं। पुरानी पद्धती जिससे पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होता था वह अब इस्तमाल किया जा रहा है। लोग अपने खेतों की घटती उर्वराशक्ति से परेशान होकर ही ऐसा कदम उठाय हैं। इस दौरान उन्हें पानी की भी कम व्यवस्था करनी पडती है।

नवलगढ़ के लोगों के चेहरे में एक कठोरता झलकती है। सनस्क्रीन लगा कर कोमल लड़कियों की झलक मुझे वहां नहीं दिखी। स्कूल-कॉलेज जाते लड़के-लड़कियां भोले भाले से दिखे। ग्रामिण भी शरीर से कठोर और भोले भाले हैं। शाररिक कठोरता उन्हें विरासत में मिली है। अत्यधिक गर्मी और अत्यधिक शर्दी झेलने वाले लोग अपने आप को बचाकर अपने खेतों के उर्वरा शक्ति को बचाकर देश विदेश में अपने नाम कमा रहें हैं। छोटा सा शहर और पतली पलती गलियां जो सड़कों पर बढ़ते वाहन को वहन नहीं कर पा रहीं है और प्रायः गांव जाम का शिकार हो जाता है जिसे ठीक होने में घंटो लग जाते हैं। नागरीय वयवस्था को ठीक करने के लिए वहां के विधायक डॉ अजय कुमार अब दृढ़ संकल्प दिखते हैं।


पर्यटन के विकास की पूरी संभावना अब बन रही है और विकसित भी हो रही है। पर्यटक पहले से ही दिल्ली से सटे राज्य घूमने राजस्थान जाते रहें हैं। नवलगढ़ भी अब उनका नया गंतव्य बन रहा है कारण कई है- यहां हवेलियों की बहुत संख्या है. मोनारक्का की हवेली को तो यूं ही रखा गया है और बिना रंग रोगन के दर्शनिय बनाया गया है। वहीं पोद्दार की हवेली को आधुनिक तरीके से सजाया गया है और उस हवेली में पूरे राजस्थान के लोक की झलक मिलती है। जैसे ऊँट की तरह तरह की बग्घी, पगड़ियों की विभिन्न शैली, गहनों, कपड़ों का कलेक्शन काफी मजेदार था। औरगैनिक खेती को दिखाने और उसी पृष्टभूमि में आतिथ्य सतकार करने के लिए ग्रामिणों ने रुरल टुरिज्म का रुप तैयार किया है। वह भी आश्चर्यजनक रुप से फलित हो रहा है। और औरगैनिक खेती को समझने और समझाने के लिए तो दर्शनिय तो हो ही गया है।


मैं वहां से लौटकर अपने दादी घर को याद कर रही थी कि लगभग वैसा ही मेरे दादा जी द्वारा बनाया गया शांति-निकेतन है जो दुर्भाग्य से बिहार के पूसा में है। बिहार जिसे देखने कोई पर्यटक बमुशिकल पहुंच पाता है और वह भी पूसा नहीं जाता। गया, पटना देखकर अपनी भारत यात्रा समाप्त समझता है। वहीं मेरा घर जो विशाल हवेलीनुमा है हांलाकि उसमें कोई चित्रकारी नहीं पर चारों तरफ से जमीन और फुलवारी से घिरा हुआ है। घर के सामने पूसा कृषि विज्ञान का लहलहाता खेत है। और हमारे घर के पिछवाड़े काफी दूर दूर तक खेत है। घर पूसा कृषी विज्ञाण के बगल में होने के और रोड़ पर होने के कारण लोग पुरानी पड़े हमारे घर को दूर से देखते हुए जाते हैं। घर पर एक कोने पर बना महावीर मंदिर भी है जिसे लोग प्रणाम करते हुए जाते हैं। और पुराने लोग डॉक्टर साहब की हवेली को देखते हैं।


पर मैं अगर यह सोचुं कि मैं उस घर को आबाद करुंगी और उसे दर्शनिय बनाने के लिए हेरिटेज का रुप दुंगी जिससे देशी पर्यटक या पूसा कृषि विज्ञाण के छात्र-छात्रा रह सकें तो यह मेरे लिए संभव नहीं होगा। कारण भी कई हैं। बिहार की प्रशासनिक व्यवस्था बहुत लाचार है। बिहार जैसे गांव में उन्नति की बात कई बार प्राण घातक होती है। पूसा में घर से लगे बाजार में दिनदहाड़े एक डॉक्टर को गोली मार दी गई। और यह समाचार आम है।

बिहार में प्रशासन भी उतना ही कमजोर है जितना वहां के लोग। लोगों में भी हिम्मत नहीं है। लालू जो पंद्रह सालों तक खुद और फिर अपनी निरक्षर पत्नी को सत्ता में बिठाकर यह साबित कर दिया कि बिहार में उसकी तूती बोलती है। बिहारी लोग पूरे भारत में फैले हुए हैं और उनकी हालत किसी से भी छुपी नहीं है। बिहारी पहले एक गाली हुआ करती थी पर अब स्थिति वैसी नहीं रही। प्रशासन बदले ना बदले लोग जगह छोड़ कर अपने खुद का विस्तार कर रहें हैं। नवलगढ़ के लोगों की भी स्थिति वैसी ही है वहां प्रशासन कोई कदम नहीं उठाता पर वह आतंक के साये से मुक्त हैं। दिन दहाड़े हत्या नहीं होती। मेहनतानुसार लोग पैसे पाते है। गृह उद्योग भी बंधेज के काम से भरा पड़ा है। पर पूसा में ना तो कोई गृहउद्योग नुमा चीज है और ना ही हम वहॉं आतंक रहीत रह सकते हैं।


और आज कल के ही दौरान मुझे पता चला कि मेरी छोटी चाची ने खुद स्कूल खोला है। यह महज इतफाक था कि मैं वहां के बारे में सोच रही थी और यह सुखद समाचार मिल गया। हमारी शुभकामनाए और आप सभी का आशिर्वाद चाहिए बिहार के पूसा गांव में स्कूल को सफलता से चलाने के लिए। हेरिटेज ना सही पर घर एक विद्यालय बन जाय यह कुल की प्रतिष्ठा को तो बढ़ाता ही है।