गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

बदलती लड़कियां

समय बदला और समय की मांग बदल रही है। आज का पवित्र दिन उन कन्याओं के नाम होता जा रहा है और उनके भाव बढ़ते चले जा रहे हैं। मेरे बचपन में ऐसा कुछ भी नहीं होता था। कन्या पूजा को याद करुं तो मुझे एक बार की गई पूजा याद आती है। पता नहीं मैं कितने साल की थी पर एक मेम साहब जैसे परिवार में हमलोगों को निमंत्रण मिला। हमसारे बच्चे उनके घर पधारे। अभी मुझे याद नहीं आता वह अंकल कहां काम करते थे पर उनके घर में बहुत सारे अच्छे अच्छे सामान थे। पहली बार सफेद सोफे पर बैठी थी तो ऐसा लगा था मानो हमलोगो अंदर ही घुस गए हैं। गेंद ढुंढते हुए मुझे याद हैं जब पलंग के नीचे झांकी थी तो बड़े बड़े लेदर के बक्शे थे जो बाद में पापा के फोरन ट्रिप से हमारे घर में भी आ गए थे। वह आंटी भी बहुत सुंदर याद नहीं पर लम्बी सी औऱ गोरी सी थी। इस सारे यादों के बीच में मुझे याद आता है कि कंजके का चलन उस वक्त इतना नहीं था और मुझे वापसी में एक रुपये के सिक्के मिले थे। बहुत आश्चर्यजनक घटना थी उन दिनों हमारे लिए। पर मैं तो एक औरत के मेरे पांव पूजने से तर गई थी। औऱ मुझे पूरे जीवन उस घटना की झलक याद है। औऱ यह भी याद है कि वह हमलोग को दोपहर के वक्त ही बुलाई थी। पर उनके घर के सामान देख कर पिक्चर में देखे गए सामान याद आ जाते थे। मेरे रोड़ में ही रहती थी। इसलिए जब भी उनके घर के सामने से गुजरना होता तो उनके घर के तरफ देखते हुए जाती मानो कोई अनोखा दृश्य दिख जाए।

आज समय बदल गया है। कल मेरी पड़ोसन ने जब श्रुति से कहा कि बेटा सुबह आठ बजे आ जाना तो उसका जवाब था - आंटी किसी को भेज देना। मुझे यह जवाब सुनकर तृप्ति मिली इसलिए कि वह अपनी अहमियत जानती-समझती है। अच्छी बात है।
सुबह से ही घूम रही है पर वहीं जहाँ उसे बुलाया जाता है। अब घर पर आ कर दक्षिणा में मिले पैसे की गिनती कर रही है। कुल 25 रुपये हो गए हैं। मेरे समय से बहुत ज्यादा है। मै ऐसे ही तुलना कर रही हूं। मजा आ रहा है उसकी सारी हरकतों के देखकर। पैसे लेना और फिर उसकी खर्च करने के प्लान यह सब दिलचस्प हैं। आज की कन्या भीरु नहीं है वह जानती है उसे क्या करना हैं। मुझे याद है जब वह छोटी थी तो मेरे बिना कहीं किसी के घर कन्या पूजा को नहीं जाती थी। पर अब मुझे उसे रोकना पड़ता है तो लोग घर से उठा कर ले जाते हैं। मुझे उसके द्वारा लाया गया प्रसाद अच्छा नहीं लगता। मैं उसे वहीं खा लेने को कहती हूं । पर वह नहीं मानती ले कर ही आती है।

बदलते समय में बदलती लड़कियों के तेवर देख मुझे अच्छा लगता है। आज के दिन कन्या की पूजा कर समाज अपने के शायद यह दिलासा देता है कि मेरे घर चाहे लड़की ना हो पर हम अड़ोस पड़ोस की लड़कियों की खूब इज्जत करते हैं। हम उन्हें पूजते हैं। हम उन्हें शकि्त का दर्जा देते हैं।
पर ऐसा नहीं है। यह आंकड़े ही बता सकते हैं कि लड़कियां अपने आस पड़ोस में ही कितनी सुरक्षित है। घर में उनकी कितनी इज्जत है। क्या वह लड़के की बराबरी आज भी कर रही है शायद एक ही स्कूल में बेटे औऱ बेटियों को पढ़ाने के बावजूद एक मां बाप की कसक मन में रह जाती है कि कन्या समाज में शकि्त हो सकती है, दुर्गा हो सकती है, सरस्वती भी हो सकती है पर घर में वह सिर्फ और सिर्फ ऐसी लड़की है जो परायी धन है उसे कुछ दिन ही इस घर रहना है और फिर अपने घर चले जाना है।

8 टिप्‍पणियां:

  1. अपने घर चाहे लड़की ना हो पर हम अड़ोस पड़ोस की लड़कियों की खूब इज्जत करते हैं ... पर आंकडे ये भी बताते हैं कि हमारी बच्चियां सा पडोस में कितनी सुरक्षित हैं ... आज स्थिति बदलकर भी नहीं बदल रही ।

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  2. वैसे तो स्थितियों में बहुत उत्साहवर्धक सुधार है किन्तु अभी भी सोच में बहुत बदलाव की आवश्यक्ता है.

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  3. Good one. Good physical & psychological description of childhood as viewed (reviewed) by an adult ! I have copied it & saved in one folder (personal).

    With the best wishes,

    P K Mishra
    (mere papa dwara bheja email.)

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  4. साल में दो दिन यूँ लड़कियों की पूजा और बाकी दिन भेदभाव
    धर्म के ठेके दार जितना भी चिढें मुझे तो ये पाखण्ड ही लगता है

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  5. सारी बेटियां आज के दिन पूजनीय हो जाती हैं। ये हमारा धार्मिक महिला दिवस टाइप है। अच्छा लगा।

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  6. एक दिन की पूजा और उसके बाद क्या ..काश की लोग इस दिन एक प्रण करते की दहेज़ नही लेंगे ..भ्रूण हत्या नही करेंगे ..पर यह सब दिवास्वप्न है

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  7. यहाँ पर में यह कहना चाहूंगी कि अच्छा होगा कि हम इस स्थिति की तुलना आज से २०-३० वर्ष पहले करें .....अपनी सोच को धनात्मक बनाएं रखें ....दुनिया एक दिन में नहीं बदलती

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