गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

आम तो खट्टे हैं, पर मन है उचाट


गर्मी के दिनों की शुरुआत हो रही है औऱ आम के पेड़ में लगे मंजर छोटे छोटे आम बन रहे होंगे। मैं उम्मीद कर रही हूं कि आम आधी इंच के हो गए होगे। आम का पेड़ औऱ उसमें लगे आम काफी आकर्षित करते हैं राहगीर को। मैं जब अपने स्कूल से वापस आया करती थी तो (जमशेदपूर की रहने वाली हूं) तो टीसी क्लॉनी के क्वाटर में एक कोने के घर पर आम का पेड़ लगा था और उसके छिलके लाल रंग के थे। स्कूल आते और जाते वक्त पेड़ को देखना नहीं भूलती औऱ मन ही मन सोचती कि उसमें रहने वाले आदमी कितने बड़े लोग होंगे।

पता नहीं उस घर से तो मुझे कोई दिखा कि नहीं पर आज भी वह पेड़ मुझे याद आता है।

जमशेदपुर टाटा स्टील द्नारा बनाया गया एक व्यवस्थित शहर है। जहां उसके कर्मचारी को घर भी रहने को दिया जाता है और सभी घर के बगान मे कोई ना कोई पेड़ हैं। सड़कों के दोनो ओर तो पेड़ों की कतार है। विदेशी पेड़ नहीं दिखते। खास देशी पेड़ अपने में जंगलीपन लिए उगता है। अधिकतर फलदार, छायादार पेड़ होते हैं। अजीब सी खूबसुरती दिखती है। जब आमने सामने क्वाटर पेड़ों की कतार और फिर चौड़ी सड़क हो तो।
स्कूल से आते जाते या कभी भी घर से निकलते थे तो सब के घर के आम का पेड़ ही दिखता था। और आपस के बातचीत में भी यह बात उठती थी कि फलाना के घर इसबार खूब मंजर लगा है, और फलाना के घर उससे कम। मंजर की याद आते ही याद आता हैं कि कैसे पहली बारिश में आम के मंजर को अपनी पहली परीक्षा देनी पड़ती थी। मौसम तो सुहाना हो जाता था पर रोड़ पूरे मंजर से भर जाता था। सुबह जमादार (सफाई कर्मी) की शामत आता होगी। सरवाइवल फॉर द फिटेस्ट वाली बात होती मंजरो में भी। फिर कुल मिलाकर हजार हजार मंजर में बमुशि्कल दस पोपले लगते थे।
आम के आकार का बढ़ना हम पेड़ से कम अपने सहेलियों द्वारा स्कूल में लाए जाने से ज्यादा जान जाते थे कि अब आम इतना बड़ा हो गया है।
स्कूल में जो सबसे बड़े आकार का आम लाती उसकी इज्जत थोड़ी बढ़ जाती थी। और सभी उसे ललचाई दृष्टि से देखते। पर वह किसी को कुछ नहीं देती। हमारा बचपन प्रेमचंद्र के बचपन की तरह नहीं था इसलिए गांव की बात तो पूरी तरह नहीं होती पर शहर और गांव के मिला जुला रुप से हमारा बचपन गुजरा है। इसलिए ना पूरी तरह गांव की हो पाई और ना ही शहर की उस आबादी की तरह जो अपने बारे में ही सिर्फ सोचते हैं।

और तो थोड़ी भटकन के बाद फिर से मैं अपने बचपन में आती हूं कि स्कूल में सबसे बडे आकार के आम लाने पर वह लड़की कितनी अपने को महान समझती थी जैसे कि पूरी जन्नत उसकी हो। घर में पापा कच्चे आम देख कर ही गुस्सा हो जाते थे। शायद ही कभी अचार खाए हों। इसलिए कच्चा आम की इच्छा बढ़ती ही जा रही थी।
भरी दोपहर जब घर पर सब सोते तो मैं अपने घर के छत मतलब क्वाटर का छत जो ग्रिल के सहारे से चढ़ती और आम के पेड़ के छांव में बैठ जाती।
हमारे बगल के क्वाटर में खोकन चाचा लोग रहते थे। बंगाली परिवार था और काफी लोग थे उस घर में इसलिए उनके आम के पेड़ की रखवाली करना कोई मुशि्कल बात नहीं थी पर मैं तो छत पर चढ़ कर आम तोड़ती पर फिर भी मेरी सहेलियों से मेरे आम का साइज कम ही रहता था। काफी गर्मी के बाद अगर बारिश हो गई तो आनंद की पराकाष्ठा होती मेरी। मैं मां से छुप कर आम चुनने निकलती। सब के घर के सामने नाली होता है वहां पर और वह बारिश के पानी के लिए ही बना होता है, औऱ सभी वक्त सुखा ही होता है जो हमारे चोर पुलिस खेलते वक्त छुपने की जगह हुआ करता था । बारिश के दिनों में पानी
भर जाता और कोई आम अगर उसमें जा गिरा होता तो बहुत अफसोस होता। मेरे घर से और कोई नही निकलता मेरी दीदी को तो मार पड़ती थी कि घर पर क्यों घुसी रहती हो आज वह स्कूल की प्रिंसिपल है औऱ मुझे मार पड़ती थी कि तुम इतने देर तक क्यों खेलती रहती हो। मुझे खेल में भीबहुत प्राइज मिलता था। बचपन में बिताए क्वाटर में बारह साल बिताने के बाद हमें जबरदस्ती बड़े क्वाटर में जाना पड़ा। हमारे इस क्वाटर में अमरुद तीन पेड़ थे। घर के सामने बगान में दो और पीछे आंगन में एक। एक पेड़ में काफी अमरुद लदा होता था और दुसरे में काफी कम पर बहुत टेस्टी। पीछे आंगन के पेड़ पर चढ़ना संभव था इसलिए मैं अपना काफी समय उसपर गुजारती थी। मुझे तो हर एक आमरुद का पता होता कि हरदिन वह कितना बढ़ रहा है। मैं तो कई बार मुंह से काट कर डाल पर ही लटके रहने देती कि इसे तीन या चार दिन बाद तोड़ा जा सकता है।
यह सारी बात लिखने की इच्छा इसलिए बलवत हुई कि मैं संडे मार्केट में कच्चा आम देखी। बहुत महंगे थे फिर भी मैने खरीदा क्योंकि उसका साइज मेरे बचपन के दिनों की याद से बहुत बड़ा था। मैं आज भी अपने उन सहेलियों के लाये गए बड़े साइज के आम से अपने को कम मानती हूं कि मेरे पास वह नहीं है। और शायद इसलिए मैं हर गर्मी के मौसम में सबसे पहले कच्चे आम खरीदती हूं। अब मुझे खाने की बहुत इच्छा नहीं होती उस वक्त भी नहीं होती थी पर एक जिद।

8 टिप्‍पणियां:

  1. apkee post ne hamree bhee bachpan kee yaadein taja kar dee, bahut hee umdaa lekhan .

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  2. बहुत खूब आम तो नही6 हम बचपन में खीरे और सेब चुराया करते थे।

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  3. यादे हमेशा सुहानी होती है। और उसमे भी आम कि बात हो और मुह मे पानी ना आऐ ऐसे कैसे हो सकता है/

    आपने अच्छा लिखा। आभार्

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  4. एक टाटा स्टील कर्मी और जमशेदपुरियन होने के नाते एक पूर्व जमशेदपुरियन के बचपन की यादों को पढ़ना अच्छ लगा। वैसे भी बचपन के सुहाने दिन के क्या कहने।

    कच्चा हो या पका हुआ आकर्षण था आम।
    चोरी करके तोड़ना बचपन का यह काम।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  5. बचपन की शरारते कभी नही भूलती। जीवन भर एक मीठी याद बन कर हमारे साथ रहती हैं।हमें भी याद है बचपन में दूसरो के घर लगे पेड़ो से फलो की चोरी करने का एक अपना ही मजा होता था। यह बात अलग थी की कई बार जिस फल की चोरी की जाती थी वह हम खाते ही नही थे। वह अक्सर डुसरो के काम आता था\मगर फिर भी शरारत से बाज़ नही आते थे।आज आपकी पोस्ट पढ कर पुरानी यादें ताजा हो गई।

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  6. Bachpan ki yaaden to hamesha shukhad hoti hai chahe wo kadwi ho ya mithi. Phir man kyon uchat hai? Yadi wajah chhote aur Kadwe aam hai to mera kahna hai ki Chhote,kadwe aur kachche aam hanikarak hote hai aur hanikarak chije jitne chhote utna hi achha. Dusri baat ye bhi kahni hai ki koi bhi guno ki wajah se bara hota hai na ki size ki wajah se.

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  7. आम के पेड़ की कहानी इतने आम तरीके से कहकर आप बचपन में ले गईं। सचमुच जो दिन बीत चुके हैं, वे लौटकर नहीं आ सकते, लेकिन उन्हें याद करके वर्तमान की मुसीबत भी जिंगदी से कुछ राहत जरूर महसूस कर सकते हैं। शुभकामनाएं।

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  8. भी आंखों में ताव है बाकी
    जिन्दगी से लगाव है बाकी //

    तुम न जाना मेरे रुक जाने पर
    फिर चलूंगा कि पांव हैं बाकी //

    कोइ आंखों में ख्वाब है बाकी
    उम्र का हर पड़ाव है बाकी //

    खेल बाकी है अभी चलने दो
    अभी तो मेरा दाव है बाकी।

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